अध्यात्मऔर धर्म का अर्थ
अध्यात्म शब्द आत्म में अधि उपसर्ग लगा कर बना है. आत्मा को ऊपर उठाना या आत्मोन्नति ही इसका अर्थ है. जो व्यक्ति परमात्मा को सर्वत्र तथा प्रत्येक जीव में समान रूप से देखता है और यह समझता है कि इस नश्वर शरीर के भीतर न तो आत्मा, न ही परमात्मा कभी भी विनष्ट होता है वही वास्तव में आत्मोन्नति की चरम अवस्था को प्राप्त होता है. परमात्मा ही समस्त जीवों का आदि, मध्य तथा अन्त है. अत: अध्यात्म विद्या आत्मा और ईश्वर के सम्बन्ध धर्मशब्द “धृ“ धातु से बना है जिसका अर्थ धारण करना होता है .वेदों में कहा गया है “धारयतेको प्रकट करती है.
इति धर्म: “ अर्थात जो धारण करने योग्य है वही धर्म है.धर्म वस्तु या व्यक्ति में सदा सहज रहने वाली सहजवृति,उसका स्वभाव ,उसकी प्रकृति अथवा गुण को प्रदर्शित करता है .
धर्म भारतीय संस्कृति और दर्शन की प्रमुख संकल्पना है। ‘धर्म’ धब्द का पश्चिमी भाषाओं में कोई तुल्य शब्द पाना बहुत कठिन है। साधारण शब्दों में धर्म के बहुत से अर्थ हैं जिनमें से कुछ ये हैं- कर्तव्य, अहिंसा, न्याय, सदाचरण, सद्गुण आदि. धर्म के दस लक्षण बताये हैं:
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ॥
(धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा किये गये अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना), दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तरङ्ग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश मे रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन वचन कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना) ; ये दस धर्म के लक्षण हैं।)
जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ न करना चाहिये – यह धर्म की कसौटी है।
मोटे तौर पर धर्म ईश्वर की खोज है .धर्म में ईश्वर महत्वपूर्ण है .इसलिए धर्म में पूजा ,प्रार्थना आदि का महत्व है जबकिअध्यात्म आत्मा की खोज है [अधि +आत्म =अध्यात्म] ,स्वयं की खोज है ,मैं कौन हूँ ? का अनुसन्धान
है .अध्यात्म में पूजा ,पथ ,प्रार्थना का महत्व नहीं ,ध्यान का महत्त्व है