जब एक वेश्या से हार गए थे विवेकानंद

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 विवेकानंद अमरीका जाने से पहले और संसार-प्रसिद्ध व्‍यक्‍ति बनने से पहले, जयपुर के महाराजा के महल में ठहरे थे। वह महाराज भक्‍त था विवेकानंद और रामकृष्‍ण का। जैसे कि महाराज करते हैं , जब विवेकानंद उसके महल में ठहरने आये,उसने इसी बात पर बड़ा उत्‍सव आयोजित कर दिया। उसने स्‍वागत उत्‍सव पर नाचने ओर गाने के लिए वेश्‍याओं को भी बुला लिया। अब जैसा महाराजाओं का चलन होता है, उनके अपने ढंग के मन होते है। वह बिलकुल भूल ही गया कि नाचने-गाने वाली वेश्‍याओं को लेकर संन्‍यासी का स्‍वागत करना उपयुक्‍त नहीं है। पर कोई और ढंग वह जानता ही नहीं था। उसने हमेशा यही जाना था कि जब तुम्‍हें किसी का स्‍वागत करना हो तो, शराब, नाच, गाना, यही सब चलता था।

 

विवेकानंद अभी परिपक्‍व नहीं हुए थे और न ही  पूरे संन्‍यासी  हुए थे। यदि वे पूरे संन्‍यासी होते, यदि तटस्‍थता बनी रहती तो, फिर कोई समस्‍या ही न रहती। लेकिन वे अभी भी तटस्‍थ नहीं थे। वे अब तक उतने गहरे नहीं उतरे थे पतंजलि में।  कामवासना और हर चीज दबा रहे थे। जब उन्‍होंने वेश्‍याओं को देखा तो बस उन्‍होंने अपना कमरा बंद कर लिया।

महाराजा आया और उसने क्षमा चाही उनसे। वे बोले, हम जानते ही न थे। इससे पहले हमने किसी संन्‍यासी के लिए उत्‍सव आयोजित नहीं किया था। हम हमेशा राजाओं और अतिथि-सत्‍कार करते हैं । इसलिए हमें राजाओं के ढंग ही मालूम है। हमें अफसोस है, पर अब तो यह बहुत अपमानजनक बात हो जायेगी। क्‍योंकि यह  सबसे बड़ी वेश्‍या है इस देश की और  बहुत महंगी  भी है।  हमने इसे इसका रूपया भी दे दिया है। उसे यहां से हटने को और चले जाने को कहना तो अपमानजनक होगा।  अगर आप नहीं आते हैं  तो वह बहुत ज्‍यादा चोट महसूस करेगी। इसलिए बाहर आयें।

किंतु विवेकानंद भयभीत थे बाहर आने में। फिर वेश्‍या ने गाना शुरू कर दिया उनके आये बिना।  उसने  एक संन्‍यासी का गीत गाया। गीत बहुत सुंदर था। गीत कहता है: मुझे मालूम है कि मैं तुम्‍हारे योग्‍य नहीं, तो भी तुम तो जरा ज्‍यादा करूणामय हो सकते थे। मैं राह की धूल सही; यह मालूम है  मुझे। लेकिन तुम्‍हें तो मेरे प्रति इतना विरोधात्‍मक नहीं होना चाहिए। मैं कुछ नहीं हूं। मैं कुछ नहीं हूं। मैं अज्ञानी हूं। एक पापी हूं। पर तुम तो पवित्र आत्‍मा हो। तो क्‍यों मुझसे भयभीत हो तुम?

 

कहते है, विवेकानंद ने अपने कमरे में सुना। वह वेश्‍या रो रही थी और गा रही थी।  उन्‍होंने अनुभव किया—उस पूरी स्‍थिति का।वे स्‍वयं को रोक ने सके,  उन्‍होंने खोल दिये  द्वार। वे पराजित हुए थे एक वेश्‍या से। वेश्‍या विजयी हुई थी; उन्‍हें बाहर आना ही पडा। वे आये और बैठ गये। बाद में उन्‍होंने अपनी डायरी में लिखा,ईश्‍वर द्वारा एक नया प्रकाश दिया गया है मुझे। भयभीत था मैं। जरूर कोई लालसा रही होगी मेरे भीतर। इसीलिए भयभीत हुआ मैं। किंतु उस स्‍त्री ने मुझे पूरी तरह से पराजित कर दिया था। और मैंने कभी नहीं देखी ऐसी विशुद्ध आत्‍मा। वे अश्रु इतने निर्दोष थे और वह नृत्‍य गान इतना पावन था कि मैं चूक गया होता। और उसके समीप बैठे हुए, पहली बार मैं सजग हो आया था कि बात उसकी नहीं है जो बाहर होता है। महत्‍व इस बात का है जो हमारे भीतर होता है।

उस रात उन्‍होंने लखा अपनी डायरी मैं; ‘’अब मैं उस स्‍त्री के साथ बिस्‍तर में सो भी सकता था। मुझे कोई भय न होता।‘’ वे उसके पार जा चूके थे। उस वेश्‍या ने उन्‍हें मदद दी पार जाने में। यह एक अद्भुत घटना थी। रामकृष्‍ण न कर सके मदद, लेकिन एक वेश्‍या ने कर दी मदद।

अत: कोई नहीं जानता कहां से आयेगी। कोई नहीं जानता क्‍या है बुरा? और क्‍या है अच्‍छा? कौन कर सकता है निश्‍चित? मन दुर्बल है और निस्‍सहाय है। इसलिए कोई दृष्‍टिकोण तय मत कर लेना। यही है अर्थ तटस्‍थ होने का।

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