डीप वेब :इन्टरनेट का अंडरवर्ल्ड

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इंटरनेट पर अपराध कितना संगीन हो सकता है यह हाल ही में पहले राहुल गांधी, फिर कांग्रेस पार्टी और इसके बाद दो जाने-माने पत्रकारों बरखा दत्त और रवीश कुमार के ट्विटर एकाउंट व ई मेल एकाउंट हैक होने से समझा जा सकता है। इंटरनेट के अपराधियों के लिए कोई भी लक्ष्य नामुमकिन नहीं है।  गूगल, याहू अथवा अन्य किसी बड़े सर्च इंजन पर दुनिया भर की सूचनाओं का खजानादेखकर अक्‍सर हम अचंभित हो जाते हैं। मगर सच्चाई यह है कि कंप्यूटर पर हमारे सामने परोसी गई सभी वेब साइट्स दुनिया की तमाम वेब साइट्स का मात्र एक फीसदी ही हैं। शेष 99 फीसदी वेब साइट्स हमसे छुपी रहती हैं और यही वजह है कि विशेषज्ञों ने इसे डीप वेब का नाम दिया है। पूरी दुनिया में इस डीप वेब के जरिए आपराधिक गतिविधियां होने के कारण अब इसे डार्क वेब भी कहा जा रहा है। अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआई ने तो इसके खिलाफ मुहिम ही छेड़ दी है मगर तमाम खतरों के बावजूद हमारी सरकार इसके प्रति अब भी अनजान ही दिखाई पड़ रही है, जबकि आईएसआईएस की धमकियों के बाद हमें सचेत होने की जरूरत है।

डीप वेब की साइट्स पर ड्रग्स, सेक्‍स, हथियार और हत्याओं के ठेके लेने वाली दुकानें सजी हुई हैं। वर्ष 2011 में लांच हुई डीप वेब की साइट सिल्क रूट ने तब दुनिया भर में तहलका मचा दिया था। ड्रग्स के कारोबार के जरिए इस साइट ने जब सवा अरब अमेरिकी डॉलर का धंधा कर लिया तब कहीं जाकर अमेरिकी सरकार की आंख खुली और 2013 में एफबीआई ने इस साइट को बंद कराया। बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार कम से कम छह लोग इन ड्रग्स का सेवन करने से मारे गए थे। हालांकि सिल्क रूट के बंद होते ही ऐसी दर्जनों नई साइट्स आ गईं जहां खतरनाक हथियारों, नशीले पदार्थों के साथ-साथ दुनिया भर में कहीं भी और किसी की भी हत्या करने के ठेके लिए और दिए जा रहे हैं। हिटमैन नेटवर्क नामक  साइट तो यहां तक दावा करती है कि उसके मार्फत दुनिया भर में कहीं भी किसी की भी हत्या कराई जा सकती है बशर्ते शिकार की उम्र सोलह वर्ष से कम न हो और वह किसी भी देश के दस प्रमुख राजनीतिज्ञों में शुमार न होता हो। यह साइट इस काम के लिए दस हजार से दो लाख अमेरिकी डालर का दाम मांगती है। यह साइट तीन हफ्ते में हत्या का काम पूरा करने का दावा कर रही है। दाम शिकार के पद और हैसियत के अनुरूप होता है।

हथियार और मादक पदार्थ भी घर तक पहुंचाने का दावा ऐसी साइट्स करती हैं। चूंकि सभी लेनदेन

बिटक्‍वाइन (इंटरनेट पर प्रचलित नई मुद्रा) में होता है अत: इसे पकडऩा काफी मुश्किल है। एफबीआई द्वारा अमेरिकी सरकार को सौंपी गई एक रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है कि चीन की एक डीप वेब साइट के जरिए वर्ष 2015 में अमेरिका के न केवल महत्वपूर्ण दस्तावेज चुरा लिए गए बल्कि 40 लाख अमेरिकी नागरिकों की निजी सूचनाएं भी हथिया ली गईं। भारत में नेताओं, पत्रकारों के एकाउंट हैक को भी इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का ट्विटर एकाउंट पिछले दिनों हैक कर लिया गया। इसके अगले ही दिन खुद पार्टी का ट्विटर एकाउंट भी हैक हो गया। चंद दिनों बाद ही देश के दो बड़े पत्रकारों बरखा दत्त और रवीश कुमार के न सिर्फ ट्विटर एकाउंट बल्कि ई मेल भी हैक हो गए। यानी दुनिया के किसी भी ताकतवर शख्‍स का एकाउंट इन ऑनलाइन अपराधियों से सुरक्षित नहीं है। इन साइटï्स के जरिए क्रेडिट कार्ड की जानकरियां भी खूब हथियाई जा रही हैं और फॉब्‍र्स पत्रिका के अनुसार हर साल केवल अमेरिका के नागरिकों को 190 बिलियन डॉलर की चपत लगाई जा रही है ।

डार्क वेब के एक और घिनौने चेहरे से दुनिया तब वाकिफ हुई जब वर्ष 2015 में अमेरिका में ही बाल संरक्षण का दावा करने वाली एक संस्था के कार्यकर्ता शैनन मैककूल को यौन बाजार में बच्चों को झोंकने के आरोप में पकड़ा गया। सात बच्चों के यौन उत्पीडऩ के आरोप के चलते उसे पैंतीस साल कैद की सजा हुई। गार्जियन अखबार के दावे को मानें तो अस्सी फीसदी डार्क वेब साइट्स बाल यौन बाजार से संबंधित हैं।

आईआईटी खडग़पुर के डायरेक्‍टर रहे प्रोफेसर एम.के. दीवान बताते हैं कि डीप वेब तक सामान्य सर्च इंजन के द्वारा नहीं पहुंचा जा सकता और इसके लिए टौर जैसे सर्च इंजन की आवश्यकता होती है। यह सर्च इंजन नेट पर मौजूद व्यक्तित की कोई पहचान संचित नहीं करता अत: यहां हुए किसी भी प्रकार के व्यवहार का पता लगाना बेहद मुश्किल होता है। यही कारण है कि अपराधियों के यहां सक्रिय होने की सूचनाओं के बावजूद डार्क वेब पर अंकुश नहीं लगाया जा सका है। दुनिया भर में सामान्य साइट्स के मुकाबले इनकी संख्‍या पांच सौ गुना ज्यादा है। वे कहते हैं कि ये साइट्स हमारे देश की सुरक्षा के लिए भी खतरा हैं। बच्चों की कंप्यूटर में निपुणता के चलते ये उनकी पहुंच में भी हैं और ऐसे में उनके अपराध की दुनिया में प्रवेश करने का भी खतरा बढ़ गया है।

आईटी विशेषज्ञ धीरज रूहेला बताते हैं कि डीप वेब साइबर वर्ड का अंडरवल्र्ड है। यहां पहुंचने के लिए सामान्य ब्राउजर के बजाय फायरफॉक्‍स की जरूरत होती है। वे बताते हैं कि इसे अमेरिकी नेवी रिसर्च लैब ने विकसित किया था ताकि इंटरनेट पर दिखाई दिए बिना कुछ भी सर्च किया जा सके, मगर अब यही अमेरिका और तमाम अन्य देशों के लिए मुसीबत बन गया है। चूंकि इससे जुड़ी साईटें डॉट कॉम पर न खुल कर डॉट ओनियन एक्‍स्टेंशन पर खुलती हैं। अत: ये पकड़ में ही नहीं आतीं। एंटी वायरस बनाने वाली कंपनी मैकेफी के सार्क देशों के प्रबंध निदेशक जगदीश महापात्रा के अनुसार रक्षा सेवाओं के लिए बनाए गए सर्च इंजन का उपयोग अब अपराधी कर रहे हैं। इसके मार्फत ड्रग, पोर्न, मानव तस्करी और अन्य अपराधों को अंजाम दिया जा रहा है।

नोएडा के आईटी विशेषज्ञ अमित जैन बताते हैं कि दुनिया भर में लगभग दो अरब लोग इंटरनेट के माध्यम से जुड़े हुए हैं। करोड़ों लोग दिन भर में इंटरनेट के माध्यम से अपने मेल देखते हैं। इतनी ही संख्‍या में सोशल साइट्स के मार्फत लोग नेट से जुड़ते हैं। नेट के मार्फत अब खरीदारी भी खूब होती है। ऐसे में किसी भी देश की सरकार और उसकी सुरक्षा एजेंसियों के लिए यह संभव नहीं है कि वह इंटरनेट की हर गतिविधि पर नजर रख सकें। जैन कहते हैं कि अमेरिका जैसे विकसित देश अब ऐसे सॉफ्टवेयर तैयार कर रहे हैं जिसके द्वारा साइबर जगत के हर गतिविधि पर नजर रखी जा सकती है। उनके अनुसार हमें भी या तो ऐसी तकनीक विकसित करनी होगी अथवा इसे आयात करना होगा। वह आशंका व्यक्‍त करते हैं कि इस दिशा में अधिक देरी देश के लिए बहुत महंगी पड़ सकती है। उधर यह आशंका भी इसी बीच बलवती हो उठी है कि कहीं इस्लामिक स्टेट जैसे खूंखार संगठन इसका इस्तेमाल हमारे युवाओं को भडक़ाने और अपने यहां उनकी भर्ती के लिए तो नहीं कर रहे? आईटी के कुछ छात्रों के आईएस में भर्ती के समाचारों की रोशनी में देखें तो यह आशंका निर्मूल भी नहीं लगती।

साभार :आउटलुक

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