तसलीमा के लिए क्यूँ आगे नहीं आते

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दोहरे चेहरों और दोहरे चरित्र वालों की संख्या कुछ ज्यादा ही बढती जा रही है | अभिव्यक्ति की आज़ादी का नारा लगाने वाले तमाम चेहरे उस वक़्त कहाँ अपना चेहरा छुपा लेते हैं जब तसलीमा नसरीन, सलमान रुश्दी या फिर ऐसे बेबाक लेखकों पर कट्टरपंथी हमला करते हैं | बांग्लादेश से अपनी जान बचाकर इस लेखिका को इसलिए भागना पड़ा क्योंकि वहां अभिव्यक्ति की वो आज़ादी नहीं है जैसी भारत में | इस लेखिका का पीछा यहाँ भी मुसीबतों ने छोड़ा नहीं है | अभी हाल ही में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान जिस तरह से उनकी भागीदारी पर कट्टरपंथियों ने आक्रामक विरोध किया उससे आयोजकों के पसीने छूट गए | उन्हें इन तत्वों से यह वादा करना पड़ा की आइन्दा से तसलीमा को नहीं बुलाया जायेगा | इस आश्वाशन के बाद उन कट्टरपंथियों ने अपना धरना – प्रदर्शन और घेराव समाप्त किया |

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कुछ इसी तरह का हंगामा इन लोगों ने तब भी किया था जब फेस्टिवल के दौरान सलमान रुश्दी का पेपर पढ़ा गया था | तसलीमा को उस बंगाल से भी भगा दिया गया था जहाँ अभिव्यक्ति की आजादी और क्रिएटिविटी का झंडा  ढोने वालों की कमी नहीं | अभिव्यक्ति की आज़ादी की सबसे बड़ी संरक्षक होने का दावा करने वाली संप्रग सरकार के कार्यकाल में तसलीमा को दिल्ली में नज़रबंद रखा गया | ये बात समझ से परे है की ऐसे मौकों पर उन प्रगतिशील लेखकों को क्या हो जाता है जो अपने आप को अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए मर – मिटने का दावा करते हैं और अपने आप को अभिव्यक्ति का मसीहा कहते नहीं थकते | बहुत हो गया , अब तो तसलीमा के पक्ष में खुल कर सामने आइये | सिर्फ मोदी या भाजपा विरोध तक सीमित रह कर अपने साथ अन्याय मत कीजिए वरना नेताओं की तरह कलमकारों पर से भी आम लोगों का विश्वास उठ जाएगा |

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