धर्म का मर्म :ओशो
पिछले दो हजार साल से तुम गुलाम हो। तुम्हारी गुलामी और तुम्हारी गरीबी ने पश्चिम को यह खयाल दे दिया है कि तुम किसी कीमत के नहीं हो। तुम जिंदा भी नहीं हो। तुम मुर्दों की एक जमात हो। और जो लोग मुझसे पहले पश्चिम गए—विवेकानंद, रामतीर्थ, योगानंद और दूसरे हिंदू संन्यासी—उनमें से किसी का अपमान पश्चिम में नहीं हुआ। कोई दरवाजे उनके लिए बंद नहीं हुए। क्योंकि उन्होंने झूठ का सहारा लिया। उन्होंने बुद्ध के साथ जीसस की तुलना की, उन्होंने उपनिषद के साथ गीता की तुलना की, गीता के साथ बाइबिल की तुलना की। पश्चिम के लोगों को और भी गौरवमंडित किया। गुलाम तुम थे, गरीब तुम थे। तुम्हारे संन्यासियों ने तुम्हें आध्यात्मिक रूप में भी दरिद्र साबित किया। क्योंकि उन्होंने तुम्हारी ऊंचाइयों को भी पश्चिम की साधारण नीचाइयों तक खींच कर खड़ा कर दिया।
मेरी स्थिति एकदम अलग थी। मैंने पश्चिम से कहा कि भारत आज गरीब है, हमेशा गरीब नहीं था। एक दिन था कि सोने की चिड़िया था। और भारत ने जो ऊंचाइया पायी हैं, उनके तुमने सपने भी नहीं देखे। और तुम जिसको धर्म कहते हो उसको भार की ऊंचाइयों के समक्ष धर्म भी नहीं कहा जा सकता। जीसस मांसाहारी हैं, शराब पीते हैं। भारत का कोई धर्म यह स्वीकार नहीं कर सकता कि उसका परम श्रेष्ठ पुरुष मांसाहारी हो, शराब पीता हो; जिसमें इतनी भी करुणा न हो कि अपने खाने के लिए जीवन को बर्बाद करता हो; जो अपने भोजन के लिए इतना अनादर करता हो जीवन का और जो व्यक्ति शराब पीता हो उसे ध्यान की ऊंचाइयों को तो पाने का सवाल ही नहीं उठता। शराब तो दुखी लोग पीते हैं, परेशान लोग पीते हैं, तनाव से भरे लोग पीते हैं। क्योंकि शराब का गुण तुम जिस हालत में हो उसे भुला देने का है। अगर तुम परेशान हो, पीड़ित हो, शराब पीकर थोड़ी देर को तुम भूल जाते हो। दूसरे दिन फिर दुख वापिस खड़े हो जाएंगे। शराब दुखों को मिटाती नहीं, सिर्फ भुलाती है। ध्यान दुखों को मिटाता है, भुलाता नहीं है। और ध्यान और शराब विरोधी हैं।
ईसाइयत में ध्यान के लिए कोई जगह नहीं है।
लेकिन तुम्हारे विवेकानंद और योगानंद और रामतीर्थ सिर्फ, प्रशंसा पाने के लिए पश्चिम को यह समझाने की कोशिश करते रहे कि जीसस उसी कोटि में आते हैं, जिसमें बुद्ध आते हैं। जिसमें महावीर आते हैं। यह झूठ था। और चूंकि मैंने वही कहा जो सच था, स्वभावतः मेरे लिए द्वार पर द्वार बंद होते चले गए। मैंने नहीं स्वीकार करता हूं कि जीसस के कोई भी वचनों में वैसी ऊंचाई है जो उपनिषद में है या उनके जिन में कोई ऐसी खूबी है जो बुद्ध के जीवी में है। उनकी खूबियां साधारण हैं। कोई आदमी पानी पर चल भी सके तो ज्यादा से ज्यादा जादूगर हो सकता है। और पहली तो बात यह है कि वे कभी पानी पर चले इसका कोई उल्लेख सिवाय ईसाइयों की खुद की किताब को छोड़कर किसी और किताब मैं नहीं है। अगर जीसस पानी पर चले तो इसमें कौन सा अध्यात्म है? पहली बात तो चले नहीं। अगर चले तो हो तो पोप को कम से कम किसी स्वीमिंग पूल पर ही चल कर बता देना चाहिए। स्वीमिंग पूल भी छोड़ो—बाथ टब। उतना भी प्रमाण काफी होगा क्योंकि वे प्रतिनिधि हैं और इन्फालिबल—उनसे कोई भूल नहीं होती। और अगर कोई आदमी पानी पर चला भी हो तो इससे अध्यात्म का क्या संबंध है?
रामकृष्ण के पास एक आदमी पहुंचा। वह एक पुराना योगी था। रामकृष्ण से उम्र में ज्यादा था। रामकृष्ण गंगा के तट पर बैठे थे और उस आदमी ने आकर कहा कि मैंने सुना है तुम्हें लोग पूजते हैं। लेकिन अगर सच में तुम्हारे जीवन में अध्यात्म है तो आओ, मेरे साथ गंगा पर चलो।
रामकृष्ण ने कहा, थके—मांदे हो थोड़ा बैठ जाओ, फिर चल लेंगे। अभी कहीं जाने की भी कोई जरूरत नहीं है। और तब तक कुछ थोड़ा परिचय भी हो ले। परिचय भी नहीं है। पानी पर चलने में तुम्हें कितना समय लगा सीखने में?
उस आदमी ने कहा, अठारह वर्ष। रामकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा, मैं तो पानी पर नहीं चला। क्योंकि दो पैसे में गंगा पार कर जाता हूं। दो पैसे का काम अठारह वर्ष में समझना मैं मूर्खता समझता हूं, अध्यात्म नहीं। और इसमें कौन सा अध्यात्म है कि तुम पानी पर चल लेते हो? इससे तुमने जीवन का कौन सा रहस्य पा लिया है?
एक घटना मुझे स्मरण आती है जो तुम्हें फर्क को समझाएगी। जीसस के संबंध में कहा जाता है कि उन्होंने एक मुर्दे आदमी को जिंदा किया। जरा सोचने की बात है कि मुर्दे रोज मरते हैं। एक को ही जिंदा किया! जो आदमी मुर्दों को जिंदा कर सकता था, वह थोड़ा आश्चर्यजनक है कि उसके एक को ही जिंदा किया और वह भी उसका अपना मित्र था—लजारस। मामला बिलकुल बनाया हुआ है। लजारस एक गुफा में लेटा हुआ है और जीसस बाहर आकर आवाज देते हैं: लजारस, उठो, मृत्यु से बाहर जीवन में आओ! और लजारस तत्काल गुफा के बाहर आ जाते हैं। अब बहुत सी बातें विचारणीय हैं। पहली तो बात, यह आदमी जीसस का बचपन का मित्र था। दूसरी बात, जो आदमी मर जाने के बाद वापस लौटा हो उसके जीवन में कोई क्रांति घटनी चाहिए। लजारस के जीवन में कोई क्रांति नहीं घटी। इस घटना के अलावा लजारस की बाबत कहीं कोई उल्लेख नहीं है। क्या तुम सोचते हो एक आदमी मर जाए, मृत्यु के पार के जगत को देखकर वापस लौटे और वैसा का वैसा ही बना रहे? और जब एक आदमी को जीसस जिंदा कर सकते थे तो फिर किसी को भी मरने की जूदियों में जरूरत क्या थीं?
इस घटना को मैं इसलिए ले रहा हूं कि ठीक ऐसी ही घटना बुद्ध के जीवन में घटी। वे एक गांव में आए हैं, वहां एक स्त्री का इकलौता बेटा—उसका पति मर चुका है, उसके अन्य बच्चे मरे चुके हैं—एक बेटा जिसके सहारे वह जी रही है वह भी मर गया। तुम सोच सकते हो उसकी स्थिति। वह बिलकुल पागल हो उठी। गांव के लोगों ने कहा कि पागल होने से कुछ भी न होगा। बुद्ध का आगमन हुआ है। ले चलो अपने बेटे को। रख दो बुद्ध के चरण में और कहो उनसे कि तुम तो परम ज्ञानी हो, जिला दो इसे। मेरा सब कुछ छिन गया। इसी एक बेटे के सहारे मैं जी रही थी, अब यह भी छीन गया। अब तो मेरे जीवन में कुछ भी न बचा।
बुद्ध ने उस स्त्री से कहा, निश्चित ही तुम्हारे बेटे को सांझ तक जिला दूंगा। लेकिन उससे पहले तुम्हें एक शर्त पूरी करनी पड़ेगी। तुम अपने गांव में जाओ और किसी घर से थोड़े से तिल के बीज ले जाओ—ऐसे घर से जहां कोई मेरा न हो। बस वे बीज तुम ले आओ, मैं तुम्हारे बेटे को जिला दूंगा।
वह पागल औरत स्वभावतः पागल होने की स्थिति में थी, भागी। इस घर में गई, उस घर में गई। लोगों ने कहा तुम कहती हो एक मुट्ठी बीज, हम बैलगाड़ियां भर कर तिल के ढेर लगा सकते हैं मगर हमारे बीज काम न आएंगे। हमारे घर में तो न जाने कितने लोगों की मृत्यु हो चुकी हैं। सांझ होते—होते सारे गांव ने उसे एक ही जवाब दिया कि हमारा बीज तुम जितना चाहो उतना ले लो, लेकिन ये बीज कान न आएंगे। बुद्ध ने बड़ी उलटी शर्त लगा दी। ऐसा कौन सा घर है जिसमें कोई मरा न हो?
दिनभर का अनुभव उस स्त्री के जीवने में क्रांति बन गया, वह वापस आई, उसने बुद्ध के चरण को छुआ और कहा कि भूलें, छोड़ें इस बात को कि लड़का मर गया। यहां जो भी आया है उसको मरना पड़ेगा। तुमने मुझे ठीक शिक्षा दी। अब मैं तुमसे यह चाहती हूं कि इसके पहले मैं मरु, मैं जानना चाहती हूं वह कौन है मेरे भीतर जो जीवन है। मुझे दीक्षा दो।
जो लड़के की जिंदगी मांगने आयी थी। वह अपने जीवन से परिचित होने की प्रार्थना लेकर खड़ी हो गयी। वह संन्यासिनी हो गयी और बुद्ध के जो शिष्य परम अवस्था को उपलब्ध हुए उनमें अग्रणी थी। इसको मैं क्रांति कहता हूं। बुद्ध अगर उस लड़के को जिंदा कर देते तो भी क्या था? एक दिन तो वह मरता ही। लजारस भी एक दिन मरा होगा। लेकिन बुद्ध ने उसे स्थिति का एक आध्यात्मिक रुख, एक नया आयाम ले लिया।
हम हर चीज को ऊपरी और बाहरी तल से देखने के आदी हैं। मैं मानता हूं बुद्ध ने जो किया वह महान है और जो जीसस ने किया वह साधारण है, उसका कोई मूल्य नहीं है। मेरी इन बातों ने पश्चिम को घबड़ा दिया। घबड़ा देने का कारण यह था कि पश्चिम आदी हो गया है एक बात का कि पूरब गरीब है, भेजो ईसाई मिशनरी और गरीबों को ईसाई बना लो। और करोड़ों लोग ईसाई बन रहे हैं। लेकिन जो लोग ईसाई बन रहे हैं पूरब में वे सब गरीब हैं, भिखारी हैं, अनाथ हैं, आदिवासी हैं, भूखे हैं, नंगे हैं। उन्हें धर्म से कोई संबंध नहीं है। उन्हें स्कूल चाहिए, अस्पताल चाहिए, दवाइयां चाहिए, उनके बच्चों के लिए शिक्षा चाहिए, कपड़े चाहिए, भोजन चाहिए। ईसाइयत कपड़े और रोटी से उनका धर्म खरीद रही है।
मुझे दुश्मन की तरह देखने का कारण यह था कि मैंने कोई पश्चिम के गरीब को या अनाथ को या भिखमंगे को…और वहां कोई भिखमंगों की कमी नहीं है, सिर्फ अमरीका में तीस मिलियन भिखारी हैं! जो दुनिया के दूसरे भिखारी को ईसाई बनाने में लगे हैं वे अपने भिखारियों के लिए कुछ भी नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे ईसाई हैं ही। मैंने जिन लोगों को प्रभावित किया उनमें प्रोफेसर्स थे, लेखक थे, कवि थे, चित्रकार थे, मूर्तिकार थे, वैज्ञानिक थे, आर्किटेक्ट थे, प्रतिभा—संपन्न लोग थे। और यह बात घबराहट की थी कि अगर देश के प्रतिभा—संपन्न लोग मुझसे प्रभावित हो रहे हैं तो यह बड़े खतरे की सूचना है। क्योंकि यही लोग हैं जो रास्ता तय करते हैं दूसरे लोगों के लिए। इनको देखकर दूसरे लोग उन रास्तों पर चलते हैं। इनके पदचिन्ह दूसरों को भी इन्हीं रास्तों पर ले जाएंगे।
और मैंने किसी को भी नहीं कहा कि तुम अपना धर्म छोड़ दो। मैंने किसी को भी हनीं कहा कि तुम कोई नया धर्म स्वीकार कर लो। मैं तो सिर्फ इतना ही कहा कि तुम समझने की कोशिश करो क्या धर्म है और क्या अधर्म है। फिर तुम्हारी मर्जी। तुम बुद्धिमान हो और विचारशील हो।
मैंने उन देशों में पहली बार यह जिज्ञासा पैदा की कि जिस पूरब के लोगों को हम ईसाई बनाने के लिए हजारों मिशनरियों को भेज रहे हैं उस पूरब ने आकाश की बहुत ऊंचाइयां छुई हैं। हम अभी जमीन पर घसीटने के योग्य नहीं हैं। उन ऊंचाइयों के सामने उनकी बाइबिल, उनके प्रोफेट, उनके मसीहा, बहुत बचकाने, बहुत अदना, अप्रौढ़ अपरिपक्व सिद्ध होते हैं। इससे एक घबराहट और एक बेचैनी पैदा हो गई।
मेरे एक भी बात का जवाब पश्चिम में नहीं है। मैं तैयार था प्रेसिडेंट रोनाल्ड रीगन से व्हाइट हाऊस में डिस्कस करने को, खुले मंच पर, क्योंकि वह फंडामैंटलिस्ट ईसाई हैं। वह मानते हैं कि ईसाई धर्म ही एकमात्र धर्म है, बाकी सब धर्म थोथे हैं। पोप को मैंने कई बार निमंत्रण दिया कि मैं वेटिकन आने को तैयार हूं, तुम्हारे लोगों के बीच तुम्हारे धर्म के संबंध में चर्चा करना चाहता हूं और तुम्हें चेतावनी देना चाहता हूं कि जिसे तुम धर्म कह रहे हो वह धर्म नहीं है और जो धर्म है तुम्हें उसका पता भी नहीं है।
!! ओशो !!
कोपले फिर फूट आईं–
(प्रवचन–01)