याद आ गए कबीर …….
सेक्युलर एक ऐसा ‘ टैग’ है जिसे आज के कई बुद्धिजीवी और राजनीतिज्ञ अपने साथ जोड़े रखना अपनी शान समझते हैं | बुद्धिजीवियों की तो एक पूरी जमात है जो तथाकथित धर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढ़े बैठे हैं | उन्हें मोदी के बयानों में कट्टरता और उस वजह से पूरे देश में असहिष्णुता नज़र आने लगती है | लेकिन देश के अन्य नेताओं का कोई भी बयान उन्हें आपत्तिजनक नहीं लगता | कोलकाता की टीपू सुल्तान मस्जिद के शाही इमाम सय्यद मोहम्मद नूर रहमान बरकती की अभद्र भाषा, या उनके बेतुके फतवे पर कोई आपत्ति नहीं है | शायद इसीलिए किसी ने देश के प्रधानमंत्री के विरुद्ध की गई आपत्तिजनक टिप्पणी पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी | देश के ऐसे महान और एकतरफा सोच वाले बुद्धिजीवियों को इतना ज्ञान तो ज़रूर होगा कि प्रधानमंत्री देश का होता है किसी पार्टी का नहीं | डेढ़ दशक पहले गुजरात में हुई एक अप्रिय घटना उनके ज़हन से नहीं उतरती | उसी का रोना रोते रहना और मोदी को कोसना उनकी दिनचर्या बन चुकी है | आजादी के बाद से अब तक न जाने कितने दंगे हुए लेकिन अलीगढ , मेरठ , बनारस , धुलागढ़ , मालदा , मुंबई , कानपुर , भागलपुर और १९८४ के देशव्यापी तमाम दंगे या अपर्या हादसों में से कोई भी उन्हें याद नहीं आता |
तसलीमा नसरीन को कट्टरपंथियों के दवाव में बंगाल से बाहर करने वाले वामपंथी , दिल्ली में तसलीमा को नज़रबंद करने वाले कांग्रेसी या ममता दीदी के बंगाल में आये दिन हो रहे दंगे और कट्टरपंथी अल्संख्यकों की ज्यादती कुछ भी इन्हें नज़र नहीं आता | न ही उसमे इन्हें कुछ गलत नज़र आता है न आपत्तिजनक | नेताओं का ऐसा आचरण तो समझ में आता है क्यूंकि उनकी पार्टी या सरकार का मामला होता है लेकिन ऐसे बुद्धिजीवी किस पार्टी या सरकार के ’ पे रोल ‘ पर हैं जो उनके होठ सिले हैं | ऐसे तथाकथित बुद्दिजीवियों को देख कबीर की याद आना लाजिमी है |
आज उनके दोहे बहुत शिद्दत से याद आ रहे हैं जिसमे उन्होंने किसी को नहीं बक्शा है | एक नज़र आप भी डालिए …” पाहन पूजे हरी मिलें तो मैं पूजूं पहाड़ , ताते यह चाकी भली पीस खाये संसार “| और अब ये भी …” कंकर पत्थर जोड़ कर मस्जिद लिया बनाय, ता चढ़ी मुल्ला बांग दे , क्या बहरा भया खुदाय” | काश आज हमारे देश में तथाकथित बुद्धिजीवियों जगह कबीर जैसे कुछ होते तो उन्हें देश के अन्य हिस्सों के साथ बंगाल की घटनाएँ भी नज़र आ जातीं |