ये तो दोहरा चरित्र है ……
अभिव्यक्ति की आज़ादी लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबसूरती होती है | गला फाड़ – फाड़ कर अभिव्यक्ति की आज़ादी मांगने वाले अक्सर हमारे मुल्क में सड़कों पर उतर आ रहे हैं और उनकी मांग सौ फीसद जायज़ भी है , इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता |पर एक बात जो आम भारत वासी को समझ नहीं आ रही है वो ये कि इस आज़ादी की मांग करने वाले सिर्फ वर्ग विशेष के लिए यह हक मांग रहे हैं या समस्त भारत के लिए ? अगर सिर्फ विचारधारा विशेष के लोगों के लिए इस अधिकार की मांग की जा रही है तो इसका प्रावधान फिलहाल भारतीय संविधान में नहीं है | साहित्य सम्मान लौटाने वाले बड़े – बड़े नाम और इस अधिकार के लिए सड़कों पर उतरने वाले राहुल गाँधी , डी राजा ,सीताराम येचुरी और ऐसे ही बड़े – बड़े लोगों से एक आम हिन्दुस्तानी के नाते हर किसी को यह सवाल करने का पूरा हक है कि ,अभिव्यक्ति संविधान के दायरे में या उससे परे ? दूसरा सवाल यह कि , अगर कन्हैय्या और खालिद के लिए यह आज़ादी जरूरी है तो फिर शाजिया इल्मी , तसलीमा नसरीन , तारेक फ़तेह , सलमान रुश्दी जैसे लोगों पर पाबंदी क्यूँ ? इनकी गर्दने कलम करने के फतवे पर असीम मौन क्यूँ ? क्या यह दोहरा मानदंड या फिर दोगलापन नहीं ? अगर है , तो एक वर्ग के लिए आज़ादी और एक पर फतवा या फिर मौन कई सवाल खड़े करता है | इन सवालों का जवाब हर उस हिन्दुस्तानी को चाहिए जो ” ज्यादा पढ़े लिखे और अक्लमंद ” लोगों की नज़र में “जाहिल ” की हैसियत रखता है |क्या इस ” तथाकथित इलीट ” वर्ग के पास कबीर की हिम्मत या समझ है , जिनके पास किसी यूनिवर्सिटी की डिग्री भले ही नहीं थी लेकिन एक स्पष्ट सोच अवश्य थी कि हर वर्ग और धर्म पर एक ही मानदंड लागू होता है , होना चाहिए |
एक को अधिकार और एक को धिक्कार नीति का अनुमोदन सिर्फ ” ज्यादा पढ़े – लिखे ” लोग ही कर सकते हैं , आम भारतवासी तो कतई नहीं |