लाइन में लगने का रोना कब तक ?
नोट बंदी अब कोई मुद्दा नहीं है | खास कर तब से जब से आम आदमी को पहले की तरह आसानी से पैसा मिलने लगा | बैंकों में अब लम्बी कतार नज़र नहीं आती | कम से कम आम आदमी को तो नज़र नहीं आती |हाँ , ऐसे लोगों को जरूर नज़र आ रही है जिन्होंने १९४७ से लोगों को लम्बी – लम्बी लाइनों में खड़ा कर रखा था | यकीन मानिए मैं आर एस एस या भाजपा से नहीं हूँ , हाँ लेकिन एक आम हिन्दुस्तानी जरूर हूँ | वो हिन्दुस्तानी जिसने अपने बचपन से जवानी तक , और फिर जवानी से बुढापे तक भारत के आम आदमी को हर चीज के लिए लाइन में खड़ा देखा है | जब मैं पैदा होने वाला था तो मेरी माँ को अस्पताल की लाइन में लगना पड़ा | फिर मुझे स्कूल में दाखिला दिलाने के लिए कई हफ़्तों तक मेरे बाबूजी और दादाजी लाइन में लगे | जब भी किसी नए स्कूल में गया वहाँ लम्बी लाइन में लगना पड़ा | पढ़ – लिख कर निकला तो नौकरी के लिए लाइन में | पहले रोज़गार दफ्तर की लाइन , फिर फार्म हासिल करने के लिए उस संस्था की लाइन , फिर ड्राफ्ट बनवाने के लिए बैंकों की लाइन , उसके बाद इम्तहान की लाइन , फिर साक्षात्कार की लाइन | एक जगह ” अब जगह नहीं है ” का बोर्ड लग जाने के बाद फिर से वही सिलसिला |
यकीन मानिए ये हर उस हिन्दुस्तानी की नियति थी ,है और रहेगी जिसका बाप कोई राजनेता या बड़ा अधिकारी नहीं है |हमारे देश में सिर्फ यही दो वर्ग है जो लाइन में नहीं लगता , बल्कि लाइन में लगवाने वाले खुद इनके घर चले जाते हैं | पहले तो टेलीफोन करने के लिए भी आम आदमी को जी पी ओं या फिर पो सी ओं की लाइन में लगना पड़ता था | ६० के दशक में लगभग पूरा देश राशन की लाइन में लगता था , सिर्फ ख़ास लोगों को छोड़ कर |मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ कि आज आम लोगों को लाइन में खड़े देखकर मगरमच्छ के आंसू बहाने का बहाना बनाने वालों में एक भी ऐसा नहीं है जो कभी किसी लाइन में लगा हो | ये तो भला हो टेक्नोलाजी का जिसने बहुत सी लाइनों को समाप्त कर दिया या फिर बहुत छोटा | देश से बेरोज़गारी और गरीबी समाप्त करने का दावा करने वाले ” फॅमिली नंबर एक ” के राज कुंवर तो कई पीढ़ियों से ऐसा दावा करते आ रहे हैं | जिन्हें अपने खानदान के इतहास और कभी न पूरा किये जाने वाले वादों की जानकारी न हो उन्हें ही ऐसा लग सकता है की वे हिन्दुस्तान की करोड़ों जनता को कोई नया सपना दिखा रहे है| मज़े कि बात यह है की अब तमाम ऐसे राजनीतिक घराने हमारे देश में हो गए हैं जिनके मुखिया या राजकुमारों के सीने में आम आदमी का दर्द हिलोरें ले रहा है | और ऐसा हो भी क्यूँ नहीं , चुनावी मौसम जो है | एक बड़ी पुराना मुहावरा है , ” जाके पैर न फटी बेवाई , वो क्या जाने पीर पराई ” | अब इन आम आदमी के सपनो को रोजाना मिटटी में मिलाने वालो को कौन बताये कि , ” सरकार पहले जूते तो पहनिए फिर पता चल जाएगा कि यह कहाँ – कहाँ से काट रहा है ” |