सोनिया के दरवाज़े पर नीतीश
समय के खेल भी निराले हैं |जिस कांग्रेस को कोस – कोस कर नीतीशजी ने अपनी राजनीतिक पहचान बनाई आज उसी के दरवाजे पर खड़े हैं अपना वजूद बचाने और अपने सपनो को सच करने की उम्मीद लेकर |नीतीश ने दिल्ली में कांग्रेस प्रेसिडेंट सोनिया गाँधी से मुलाकात कर यह सुनिश्चित करने की कोशिश की है कि अगले राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष संयुक्त रूप से साझा प्रत्याशी मैदान में उतारे | वैसे नीतीश ने कहा है कि , सोनियाजी से उनकी मुलाकात महज़ शिष्टाचार मुलाकात थी |ये अलग बात है की जद यूं के महासचिव के सी त्यागी ने अपने बयान से स्पष्ट कर दिया कि नीतीश जी भाजपा के विरुद्ध रणनीति तैयार करने के सिलसिले में सोनिया से भी बात – चीत की |इतना तो नीतीश और सोनिया को भी पता है कि उत्तर प्रदेश ,उत्तराखंड और अन्य तीन राज्यों के चुनाव के बाद जो तस्वीर बनी है उसमे राष्ट्रपति एन डी ए का ही होगा |अगर विपक्ष अपना प्रत्याशी खड़ा भी करता है और वोटिंग होती है तो वह महज़ औपचारिकता ही होगी |परिणाम पहले से विदित है |
दरअसल ,नीतीश इसी बहाने २०१९ के आमचुनाव से पहले एक महागठबंधन को शक्ल देना छह रहे हैं |उन्हें और तमाम विपक्ष को यह बात अच्छी तरह पता है कि नरेन्द्र मोदी की से अकेले टकराने की औकात किसी में नहीं |वैसे तो मोदी की लोकप्रियता और उनके कद को देखते हुए एक साथ आने पर भी विपक्ष का बंटाधार २०१९ में भी सौ फीसद तय है |विधानसभा चुनावों में सपा , कांग्रेस ,बसपा सहित दर्ज़नो पार्टियों को इस बात का बखूबी इल्म हो चुका है |ये बात अलग है कि ये सभी पार्टियाँ अपनी हार के लिए अलग – अलग बहाने बनाने से बाज़ नहीं आ रही हैं |एक भी पार्टी ईमानदारी से अपनी हार का मूल्यांकन नहीं करना चाहती |इस बात का लाभ भी भाजपा को ही मिल रहा है और मिलेगा भी |सच तो यह है कि लालू और नीतीश जैसे नेता अपने जनाधार को बढाने और परखने की जगह मोदी के प्रति अपनी व्यक्तिगत नफरत और दुश्मनी से ऊपर उठ ही नहीं पा रहे हैं |उत्तर प्रदेश चुनाव में लालूजी जहाँ – जहाँ गए वहां के परिणाम उनके और मोदी के बीच के फासले को बताने के लिए पर्याप्त हैं |नीतीश ने तो उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जाने की हिम्मत तक नहीं की | इसके लिए उन्हें अपने ही गठबंधन के सीनियर राजद नेता रघुवंश बाबू के कटाक्ष झेलने पड़े |सच तो यह है कि भाजपा की लोकप्रियता और उसकी व्यापकता का मुकाबला करने की औकात आज की तारीख में किसी के पास नहीं |दूसरा सत्य यह है की बंगाल जैसे राज्य में उसका वोट प्रतिशत जिस तेजी से बढ़ रहा है उसने वामपंथी पार्टियों की भी चिंता बढ़ा दी है |वैसे विपक्षी एकता का प्रयास बुरा नहीं और इस तरहके प्रयोग देश पहले भी देख चुका है |लेकिन कांग्रेस इस स्थिति में नहीं कि वह किसी को सहारा दे सके | वो तो खुद ही हर चुनाव में अपना वजूद बचाए रखने के लिए छोटी – छोटी और क्षेत्रीय पार्टियों तक का कन्धा तलाशती रहती है |नीतीश के पास भी फिलहाल सिर्फ दो लोक सभा सदस्य हैं |अब ऐसे में उनकी अगुआई में राष्ट्रीय स्तर पर किसी गठबंधन या महागठबंधन की उम्मीद करना परिपक्वता तो नहीं ही होगी |अभी जो तस्वीर उभर रही है उसमे विपक्ष की व्यापक एकता और प्रधानमंत्री पद के लिए कोई एक नाम सोच पाना भी महज़ कोरी कल्पना ही होगी |लेकिन इतना तो मानना पड़ेगा अपनी राजनीतिक महत्वाकांच्छा की पूर्ती के लिए हमारे देश के कुछ नेता उस दरवाजे पर भी माथा टेक सकते हैं जिसके विरोध से उनका उदय हुआ हो | नीतीश का प्रयास उसी श्रेणी में आता है |साथ ही यह भी कि राजनीति में न कोई दोस्त है न दुश्मन |वैसे एक सत्य यह भी है कई आज कोई कुछ भी बयान दे लेकिन विपक्ष के हर दल में इतने नेता हैं कि अपना मठ वो खुद ही उजाड़ लेते हैं अन्य किसी को प्रयास नहीं करना पड़ता |