साम्यवाद देश हित में नहीं-अम्बेडकर

जबसे वामपंथियों की जमीन खिसकनी शुरू हुई है तभी से उन्होंने अंबेडकर को वामपंथी साबित करने का प्रयास शुरू कर दिया है ।उसी तरह ये प्रेमचंद्र को भी वामपंथी साबित करने पर तुले हुए हैं। जिस तरह से पूरी दुनिया के नालेज सिस्टम पर इनका अधिकार है ये अपने मनोनुकूल नेरेटिव स्थापित करने में सफल भी हो जाते हैं । इस लेख में अम्बेडकर के व्यक्त विचारों के माध्यम से यह साबित हो गया है कि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर वामपंथियों के कट्टर दुश्मन थे ।उनके मन में वामपंथियों के प्रति किसी भी प्रकार की संवेदना नहीं थी । अंबेडकर अपने प्रसिद्ध लेख ” बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स ” में कहते हैं कि मार्क्सवादी सिद्धांत को 19वीं शताब्दी के मध्य में जिस समय प्रस्तुत किया गया था उसी समय से इसकी काफी आलोचना होती रही है। इस आलोचना के फलस्वरूप इस विचारधारा का काफी बड़ा ढांचा ध्वस्त हो चुका है । इसमें कोई संदेह नहीं है कि मार्क्स का यह दावा कि उसका समाजवाद अपरिहार्य है पूर्णतया असत्य सिद्ध हो चुका है ।सर्वहारा वर्ग की तानाशाही सर्वप्रथम 1917 में उसकी पुस्तक दास कैपिटल , समाजवाद का सिद्धांत के प्रकाशित होने के लगभग 70 वर्ष के बाद सिर्फ एक देश में स्थापित हुई थी । यहां तक कि साम्यवाद जो कि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही का दूसरा नाम है रूस में आया तो यह किसी प्रकार के मानवीय प्रयास के बिना किसी अपरिहार्य वस्तु के रूप में नहीं आया था । वह क्रांति हुई थी और इसके रूस में आने से पहले भारी रक्तपात हुआ था तथा  शेष विश्व में अभी भी सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के आने की प्रतीक्षा की जा रही थी। मार्क्सवाद का कहना था कि समाजवाद अपरिहार्य है उसके इस सिद्धांत के झूठ पड़ जाने का अलावा सूचियों में वर्णित उसके अन्य अनेक विचार भी तर्क तथा अनुभव दोनों के द्वारा ध्वस्त हो गए हैं । अब कोई भी व्यक्ति इतिहास की आर्थिक व्यवस्था को ही इतिहास की केवल एक मात्र परिभाषा स्वीकार नहीं करता है। इस बात को कोई स्वीकार नहीं करता कि सर्वहारा वर्ग को उत्तरोत्तर कंगाल बनाया गया है और यही बात उसके अन्य तर्क के संबंध में भी सही है ।फिर आगे अंबेडकर जी बोलते हैं कि साम्यवादियों द्वारा अपनाए गए साधन भी स्पष्ट हैं, जो है -(1)हिंसा और (2)सर्वहारा वर्ग की तानाशाही।
 साम्यवादी कहते हैं कि साम्यवाद को स्थापित करने के केवल दो साधन है पहला है हिंसा। वर्तमान व्यवस्था को भंग करने व तोड़ने के लिए इससे कम कोई भी कार्य योजना पर्याप्त नहीं होगी। दूसरा साधन है सर्वहारा वर्ग की तानाशाही। नई व्यवस्था को जारी रखने के लिए उससे कम कोई चीज पर्याप्त नहीं होंगी।
 जहां तक हिंसा का संबंध है , हिंसा का नाम सुनते ही उसके विचार से मृत लोगों को कपकपी आ जाएगी । परंतु यह केवल भावुकता है । हिंसा का पूर्ण त्याग नहीं किया जा सकता । यहां तक कि गैर साम्यवादी देशों में भी हत्यारे को फांसी पर लटकाया जाता है ।क्या फांसी पर लटकाना हिंसा नहीं है ? गैर साम्यवादी देश एक दूसरे के साथ युद्ध करते हैं ,युद्ध में लाखों लोग मारे जाते हैं । क्या यह हिंसा नहीं है ? यदि एक हत्यारे को इसलिए मारा जा सकता है क्योंकि उसने एक नागरिक को मारा है, उसकी हत्या की है , एक सिपाही को युद्ध में मारा जा सकता है क्योंकि वह शत्रु  से संबंधित है ।
बुद्ध  हिंसा के विरुद्ध थे परंतु व न्याय के पक्ष में भी थे और जहां पर न्याय के लिए बल प्रयोग अपेक्षित होता है उन्होंने बल प्रयोग करने की अनुमति दी है। यह बात वैशाली के सेनाध्यक्ष सिन्हा के सेनापति के साथ उनके वार्तालाप में भली-भांति सुधारण समझाएं गई है। इस बात को जानने के बाद कि बुद्ध अहिंसा का प्रचार करते हैं , उसके पास गया और पूछा-
“भगवान अहिंसा का उपदेश देते हुए प्रचार करते हैं क्या भगवान एक दोषी को दंड से मुक्त करने व स्वतंत्रता देने का उपदेश देते व प्रचार करते हैं ? क्या भगवान यह उपदेश देते हैं कि हमें अपनी पत्नियों अपने बच्चों तथा अपनी संपत्ति को बचाने के लिए उनकी रक्षा करने के लिए युद्ध नहीं करना चाहिए ? क्या अहिंसा के नाम पर हमें अपराधियों के हाथों कष्ट झेलते रहना चाहिए? क्या तथागत उस समय भी युद्ध का निषेध करते हैं जब वह सच तथा न्याय के हित में हो?”
बुद्ध ने उत्तर दिया – मैं जिस बात का प्रचार करता हूं व उपदेश देता हूं ,आपने उसे गलत ढंग से समझा है। एक अपराधी व दोषी को दंड अवश्य दिया जाना चाहिए और एक निर्दोष व्यक्ति को मुक्त व स्वतंत्र कर दिया जाना चाहिए । यदि एक दंडाधिकारी एक अपराधी को दंड देता है तो यह दंडाधिकारी का दोष नहीं है । दंड का कारण अपराधी का दोष व अपराध होता है । जो दंडाधिकारी दंड देता है वह न्याय का ही पालन कर रहा होता है । उस पर अहिंसा का कलंक नहीं लगता । जो व्यक्ति न्याय तथा सुरक्षा के लिए लड़ता है उसे हिंसा का दोषी नहीं बनाया जा सकता । यदि शांति बनाए रखने के सभी साधन असफल हो गए हो तो हिंसा का उत्तरदायित्व उस व्यक्ति पर आ जाता है जो युद्ध को शुरू करता है। व्यक्ति को दुष्ट शक्तियों के समक्ष आत्मसमर्पण नहीं करना चाहिए ।यहां युद्ध हो सकता है । परंतु यह स्वार्थ कि या स्वार्थ पूर्ण उद्देश्यों की शर्तों के लिए नहीं होना चाहिए। यहां महात्मा बुद्ध स्वीकार करते हैं यह केवल साध्य ही है जो साधनों को उचित सिद्ध करता है। प्रोफेसर डीवी कहते हैं कि हिंसा बल प्रयोग का ही दूसरा नाम है। यद्यपि बल का प्रयोग सृजनात्मक उद्देश्यों के लिए किया जाना चाहिए । बल प्रयोग को इस प्रकार नियमित करना चाहिए कि वह अनिष्टकर साध्य को नष्ट करने की प्रक्रिया में यथासंभव अधिक से अधिक साधनों की रक्षा कर सके। बुद्ध की अहिंसा उतनी निरपेक्ष नहीं थी जितनी जैन मत के संस्थापक महावीर की अहिंसा थी । उन्होंने केवल शक्ति के रूप में बल प्रयोग की अनुमति दी होगी । साम्यवादी हिंसा का प्रतिपादन एक निरपेक्ष सिद्धांत के रूप में करते हैं बुद्ध इसके घोर विरोधी थे । जाहिर सी बात है डॉ आंबेडकर बुद्ध के विचारों से अत्यधिक प्रभावित  थे ,उनका मानना था साम्यवादियों को बुद्ध की शिक्षाओं से अपना ज्ञानवर्धन करना चाहिए अपना परिमार्जन करना चाहिए । उन्होंने अपने अध्ययन और चिंतन के आधार पर यह निष्कर्ष प्राप्त कर लिया था कि साम्यवाद आधुनिक युग के लिए एक बहुत बड़ा खतरा है और राजनेताओं और जनता को उस से बच के रहना चाहिए ।जहां तक साम्यवाद के मूल सिद्धांत की बात है उससे कहीं परिष्कृत और व्यवहारिक सिद्धांत बौद्ध धर्म का है । बौद्ध धर्म व्यक्ति को को भौतिक सुख के साथ साथ अध्यात्मिक संतुष्टि प्रदान करता है जो मानव की अंति इच्छा होती है। डाक्टर अंबेडकर आगे कहते हैं जहां तक तानाशाही का सवाल है  बुद्ध इसका बिल्कुल समर्थन नहींं करते। वह लोकतंत्रवादी के रूप में पैदा हुए थे और लोकतंत्रवादी के रूप में ही मरे ।वह पूर्णरूपेण समतावादी थे।
अंबेडकर पूरी तरह भारतीय संस्कृति के पोषक थे और वैसे किसी विचारधारा के विरोधी थे जो भारत के मूल संस्कृति पर आघात करता प्रतीत होता था ।साम्यवाद को मजदूरों का शोषण करनेवाला मानते थे और मानव जाति के स्वाभाविक विकास में उसे बाधा मानते थे। उनका मानना था कि साम्यवाद पूरी तरह आर्थिक आधार पर रचित है जबकि मानव जीवन के लिए आध्यात्मिक और धार्मिक आधार भी आवश्यक होता है।
उन्हें भारतीय संस्कृति को ध्यान में रखते हुए हैं बौद्ध धर्म का अंगी करण किया यद्यपि धर्म परिवर्तन की घोषणा करने के बहुत दिनों के बाद उन्हें अपना धर्म परिवर्तन किया ।इतने दिनों तक हिंदू समाज से अनुकूल प्रतिक्रिया के अपेक्षा करते रहे उन्हें लगा था मेरे इस घोषणा से हिंदू समाज के अंदर जाति प्रथा को लेकर जो धारणाएं हैं ध्वस्त हो जाएंगी हो जाएंगी और वे दलितों को समानता का स्तर पर ले आएंगे लेकिन उनके जीवन में ऐसा हो ना सका । बहुतों का मानना है के धर्म परिवर्तन के बाद अंतर्मन से भी दुखी हो गए थे और यही कारण था यह बहुत दिनों तक जी ना सके ।डॉ बाबासाहेब आंबेडकर के प्रति हमारी यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी कि हम हिंदू समाज के अंदर व्याप्त जाति प्रथा को पूरी तरह खत्म कर दें।
@मिथिलेश कुमार सिंह

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