सड़क पर किसान
मध्य प्रदेश के कुछ जिलों में किसानों का आंदोलन उग्र होने की खबरें आ रही हैं। मंदसौर में पुलिस या सीआरपीएफ की फायरिंग में दो किसानों की मौत और चार के घायल होने की सूचना है। महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री के साथ कुछ किसान नेताओं की बातचीत के बाद आंदोलन खत्म होने की घोषणा की गई, लेकिन जमीन पर हालात ज्यों के त्यों हैं। किसान कहीं दूध सड़कों पर बहा रहे हैं तो कहीं सब्जियां खुले में फेंक दे रहे हैं। दोनों राज्यों में बीजेपी की सरकारें हैं और इनके मुख्यमंत्रियों ने किसान आंदोलन से निपटने के लिए भी वही तरीका अपनाया है जो वे विपक्ष के खिलाफ सफलतापूर्वक आजमाते रहे हैं। यानी आक्रामक बयान जारी करना, प्रदर्शनकारियों को असामाजिक तत्व करार देना वगैरह।
यह भी दिलचस्प है कि मोदी सरकार ने अगले कुछ वर्षों में किसानों की आमदनी दोगुनी करने का ब्लूप्रिंट तैयार करने की जिम्मेदारी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को ही सौंप रखी है। इन दोनों बीजेपी शासित राज्यों में किसानों की मांगें क्या हैं? सबसे बड़ी मांग यह कि वे उत्तर प्रदेश की तरह अपने यहां भी कर्जमाफी की घोषणा चाहते हैं। देश का बैंकिंग सेक्टर फिलहाल लाखों करोड़ रुपये के डूबे कर्ज के चलते अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहा है। यूपी का कर्जमाफी फॉर्म्युला देश भर में अपनाने का अर्थ होगा बैंकों को तीन-चार लाख करोड़ रुपये की चपत और लगना। हालांकि वित्तमंत्री अरुण जेटली पहले ही कह चुके हैं कि केंद्र सरकार अपनी तरफ से किसी का एक पैसा भी कर्ज नहीं माफ करने वाली, राज्य सरकारें अपने संसाधनों से इस दिशा में जो कर सकती हैं, वह करें।
दरअसल किसानों की मुख्य समस्या बैंकों से लिया गया कर्ज नहीं, कुछ और है। 2014 और 2015 में वे अपनी फसलों पर सूखे की मार झेल चुके हैं। 2016 में मॉनसून ठीक रहा तो खरीफ की फसल आते ही नोटबंदी लागू हो गई। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में नियमित वृद्धि का जो तरीका यूपीए ने अपना रखा था, एनडीए सरकार ने उससे हाथ खींच रखे हैं। यह काम सिर्फ दलहनों के लिए किया गया, लेकिन महाराष्ट्र के किसानों को अपनी उपजाई अरहर 5050 रुपये प्रति क्विंटल के घोषित एमएसपी की तुलना में मात्र 4000 रुपये या इससे भी कम दाम पर बेचनी पड़ी। कारण? जो सरकारी या सहकारी संस्थाएं उनसे एमएसपी पर अरहर खरीद सकती थीं, उनके पास खरीदारी के लिए नकदी ही नहीं थी।
सत्तापक्ष को किसानों के साथ विपक्ष जैसा बर्ताव नहीं करना चाहिए। किसान न तो राजनीति करना जानते हैं, न ही ट्रेड यूनियनों की तरह सौदेबाजी का तजुर्बा उनके पास है। ऐसे में किसान आंदोलनों के अंधी हिंसा में फंसने का खतरा बहुत ज्यादा है। कहने की जरूरत नहीं कि क्रोध और हताशा में अगर उन्होंने खेती से अपना ध्यान हटा लिया तो कुछ महीने बाद इससे सबसे ज्यादा परेशानी शहरी मध्यवर्ग को ही होने वाली है।
सौजन्य – नवभारत टाइम्स।