जौहर– भारतीय बलिदान की सर्वोच्च परम्परा—!

 सूबेदार जी की कलम

           भारतीय समाज हमेशा स्वाभिमानी रहा है उसने हमेसा त्याग, तपस्या और स्वाभिमान का सर्वोच्च मानदंड स्वीकार किया है ! कभी पीछे से वार नहीं किया। धर्म युद्ध ही सीखा , किया। विदेशी हमलावरों में जहाँ धोखा, चरित्र हीनता, हीन भावना, आत्म विश्वास की कमी, आपस मे फूट, का विकाश हुआ वही आत्म स्वाभिमान की रक्षा हेतु सती प्रथा, जौहर, धर्म रक्षा हेतु पददलित होना, उंच -नीच, भेद -भाव और भी विषयों को हमने स्वीकार किया । यह सब परंपरा हमारे वैदिक काल मे नहीं थी । हमारा अपना मानदंड था जो सर्वोच्च था, आज भी सारा का सारा विश्व हमारे संस्कृति को जानकार अचंभित हो जाता है । कितना ऊंचा था हमारा मानदंड !
        प्रथम बार जौहर —–
        जौहर या सती की कोई परंपरा भारतीय समाज मे नहीं थी न ही है । समय-समय पर समय काल परिस्थितियाँ बनी समाज ने अपने स्वाभिमान व सुरक्षा हेतु ये हथियार उठाए । 712 मे जब राजा दाहिर के ऊपर मुहम्मदविन कासिम का हमला हुआ भारतीय समाज इस्लाम के बारे मे जनता नहीं था ।हमारे यहाँ धर्म युद्ध था धोखे से राजा दाहिर पराजित हूये । मुसलमान इतने क्रूर थे कि उस समय के हिन्दू इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे, 34 हज़ार हिन्दू ललनाओ को अरब के बाज़ारों मे बेचा गया । उस समय राजा के किले मे 300 महिलाओं ने अपना सर्बोच्च बलिदान जौहर के रूप मे दिया। यह बात अलग है कि तुरंत ही हिन्दू समाज खड़ा हो गया बाप्पा रावल के नेतृत्व मे , जैसा को तैसा उत्तर देकर मुस्लिम सेना को इस प्रकार मारा फिर तीन सौ वर्ष उन मलेक्षों की हिम्मत नहीं पड़ी कि वे भारत की तरफ आँख उठाकर देख सकें।
          जौहर की परंपरा—
          राष्ट्र और समाज की रक्षा हेतु यदि राजा वीर गति को प्राप्त हुआ तो रानी भी उसका अनुशरण करती थी । यह राजा की ध्वजा हाथ मे ले लेती थी ।अपनी मर्यादा की रक्षा हेतु प्रथम राजा दाहिर की रानियों ने जौहर किया था उससे पहले कभी जौहर का वर्णन नहीं मिलता, जब लगातार इस्लामिक हमले होने शुरू हो गए और सीमावर्ती क्षेत्रों मे राजपूत राजाओं ने संघर्ष किया लेकिन उन बर्बर आततायी इस्लामी हमलावरों के विकल्प के रूप उन्होने चुना कि यदि राजपूत सेना कम भी है हम देश व धर्म के लिए आत्मोत्सर्ग करेंगे–! ”राजपूतना” मे कई स्थानो पर जैसे परंपरा ही पड़ गयी कि क्षत्राणी गोमुख मे स्नान कर जौहर करेगी और राजपूत केशरिया वाना पहन अंतिम युद्ध के लिए निकल पड़ेगे हम देखेगे कि ऐसे कई स्थानो पर राजपूतों ने युद्ध लड़ा, एकाध स्थानों पर तो ऐसा भी हुआ कि जीत कि खुशी मे दुश्मन के झंडे को लेकर आगे बढ़े किले से रानियों ने देखा कि शत्रु का झण्डा है उन्हे लगा कि हम पराजित हो गए जौहर कर लिया यानी ऐसा क्यों-? मलेक्षों के हाथ मे पड़कर आत्म सम्मान खोने की अपेक्षा आत्म दाह स्त्री के लिए यह सर्व श्रेष्ठ विकल्प है । इस मानसिकता से उद्भूत यह परंपरा, यह वास्तव मे देश भक्ति का ज्वार मातृभूमि के प्रति अगाध प्रेम का समर्पण ही था ।
         ”रानी पद्मावती” का जौहर—
         राजस्थान के कई किलों मे ”जौहर कुंड” बनाने की परंपरा खड़ी हो गयी चित्तौणगढ़ मे तो साफ तौर पर दिखाई देता है, भारतीय नारी केवल भोग्या नहीं वह तो भारतीय परंपरा की प्रेरक रही है कभी वह दुर्गा के रूप मे तो कभी लक्ष्मी के रूप मे और कभी सरस्वती के रूप मे भारतीय समाज का मार्ग दर्शन किया मध्य काल की सर्व श्रेष्ठ उत्कृष्ट परंपरा जौहर हमारे सामने है अपनी मर्यादा और भारतीय स्वाभिमान हेतु आत्मोत्सर्ग करना यही कर्तब्य, कम्युनिष्ट इतिहास कारों ने राजपूतना के इतिहास की गलत ब्याख्या की, हम सभी जानते हैं कि भारतीय समाज मे किसी भी पराए पुरुष के सामने कोई भी नारी के जाने की परंपरा नहीं है, वह तो महारानी थी ! वह भी चित्तौण की जहां जौहर की यानि सर्व श्रेष्ठ बलिदान की परंपरा रही हो, जहां युद्ध के मैदान मे जाने का अभ्यास रहा हो वहाँ यह कैसे हो सकता है कि ”रानी पद्मावती” अलाउद्दीन खिलजी के सामने शीसे मे दिखती यह विलकुल असत्य है कोई भी भारतीय नारी ऐसा नहीं कर सकती थी, महारानी पदमनी महल से बाहर आई ही नहीं-! यह तो सेकुलर व वामपंथी इतिहासकारों ने भारतीयता व भारतीय नारी को अपमानित करने हेतु गलत लिखा, 12 वर्षीय बादल और गोरा के नेतृत्व मे जो युद्ध लड़ा गया यही इस बात का सबूत है, खिलजी ने राणा रत्न सिंह को धोखे से किले के बाहर कैद कर लिया रानी को संदेश भेजा कि यदि राणा को सुरक्षित चाहती है तो स्वयं को हमारे हवाले कर दो बुद्धिमान रानी ने अपने रण- कौशल से सात सौ पालकी सजाई और अपने भतीजे बादल व गोरा के नेतृत्व चुने हुए सैनिकों को भेजे, कर्नल टाट लिखते हैं कि किले के द्वार पर युद्ध को देख खिलजी घबरा गया युद्ध मे जो भी हुआ लेकिन रानी ने तो अपनी सहेलियों, क्षत्राणियों के साथ जौहर कर लिया, जब विजयी राजपूतो की सेना किले मे प्रवेश किया तो देखा सब कुछ समाप्त हो गया फिर राजपूतों ने केशरिया वाना पहन कर अंतिम लड़ाई लड़ी लड़ कर स्वयं को समाप्त कर विजय प्राप्त किया, सिंघल द्वीप के राजा गंदर्भ सेन की पुत्री मेवाण के ”रावल रतन सिंह” की महारानी पदमनी जो सर्वोच्च वालिदान हेतु तैयार थी समबत 1359 को 16 हज़ार राजपूतनियों के साथ गोमुख मे स्नान करने के पश्चात सज-धज कर धू- धू करती हुई अग्नि माता को समर्पित कर दिया, अंत मे मेवाण का सूर्य वंश ही जीता उसका सौर्य, साहस हिन्दुत्व के रूप मे सामने प्रकट हुआ। 

       

       और फिर सर्वोच्च वालिदान—
        चित्तौण मे एक दूसरा भी जौहर हुआ ”खानवा” युद्ध पराजय के पश्चात राणा सांगा के उत्तराधिकारी के नाते विक्रमादित्य को महाराणा की गद्दी पर बैठाया गया वे अयोग्य शासक सिद्ध हुए गुजरात के शासक बहादुर साह ने चित्तौण पर हमला कर दिया विक्रमादित्य ने सम्झौता कर लिया लेकिन महाराणा राणा सांगा की महारानी कर्मावती को यह पसंद नहीं था उन्होने सभी सामंतों को बुलाया सभी को मातृ भूमि की रक्षा हेतु मर मिटाने की सपथ दिलाई और सेना का नेतृत्व कर ये चित्तौण तुम्हारा है सामंतों के हवाले कर दिया, युद्ध हुआ राजपूत सेना ने शत्रु सेना के छक्के छुड़ा दिये मुस्लिम सेना का पराजय हुआ राजपूतों ने विजय के उन्माद मे ऐतिहासिक भूल की उनके सिर की जगह उनके इस्लामिक झण्डा लेकर किले की तरफ आते देख रानी कर्मवाती जो सर्वोच्च वालिदान हेतु तैयार थी, मार्च 1535 मे विजय स्तम्भ के सामने 13 हज़ार क्षत्राणियों के साथ जौहर किया, सेना ने विजय प्राप्त कर राणा विक्रमादित्य को पुनः राणा स्थापित किया गया, वास्तव मे यह घटना जोश मे होश खो बैठने के कारण हुआ । 
        जौहर पर जौहर— 
        1567 मे अकबर ने चित्तौण पर हमला किया राणा उदय सिंह ने किले की सुरक्षा ‘जयमल’ को सौप कर जंगल मे चले गए अकबर को किसी प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा तब भी उसने निहत्थे किसानो पर अत्याचार किया 34 हज़ार किसानों की हत्या की किले के द्वार पर घन-घोर युद्ध हुआ हजारों राजपूतानियों सर्वोच वालिदान के लिए तैयार हो गईं किले मे चार स्थानों पर जौहर किया, राजपूत सैनिकों ने तत्पश्चात गोमुख स्नान किया केशरिया वाना पहन कर मुगल सेना पर टूट पड़े मुगल सेना के छक्के छुड़ा दिये अकबर किला कब्जा नहीं कर सका खाली हाथ उसे वापस जाना पड़ा पुनः राणा उदय सिंह गद्दी पर बैठे।        

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