ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी – हिन्दू साम्राज्य दिवस

सन् 1674 में ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को शिवाजी का राज्याभिषेक हुआ था, जिसे आनंदनाम संवत् का नाम दिया गया। महाराष्ट्र में पांच हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित रायगढ़ किले में एक भव्य समारोह हुआ था। इसके पश्चात् शिवाजी पूर्णरूप से छत्रपति अर्थात् एक प्रखर हिंदू सम्राट के रूप में स्थापित हुए। शिवाजी के राज्याभिषेक के भव्य समारोह का क्या महत्व था?

इस विषय पर Rashtriya Swayamsevak Sangh : RSS के माननीय सरकार्यवाह और अखिल भारतीय प्रचारक प्रमुख रहे माननीय हो.वे.शेषाद्रिजी को सभी पढ़ें।

पहला, इसने सभी को भारत के हिंदू चरित्र और एक नए राज्य के उद्देश्य से परिचित करवाया। उससे भी महत्वपूर्ण, उस समय तक कई हिंदू सरदार राजा थे- उन्हें किसी मुस्लिम सम्राट ने ही यह उपाधि प्रदान की थी। यहां तक शिवाजी के पराक्रमी पिता भी एक ऐसे ही सरदार थे। मेवाड़ और बुंदेलखंड को छोड़कर कोई भी अपनी ताकत के बूते राजा नहीं था। यहां तक कि इन दोनों के पास भी भारतभर में हिंदू राज्य स्थापित करने की दृष्टि नहीं थी। शिवाजी का प्रसंग तो बिल्कुल भिन्न था। बीजापुर के सुल्तान के तहत एक “छोटे” राजा के रूप में उन्होंने दक्षिण में मुगलों के ठिकानों पर आक्रमण करके दिल्ली के सिंहासन को चुनौती दी थी। वे उन प्रारंभिक शासकों में से एक थे जिन्होंने समुद्री युद्ध की सर्वोच्च महत्ता को समझते हुए पश्चिमी तट पर दुर्गों का निर्माण किया और समुद्री जहाजों का प्रयोग किया। उन्होंने मतान्तरण के आसन्न खतरों को भांपते हुए अंग्रेज मिशनरियों को चेतावनी दी और आदेशों की अवहेलना करने पर उनमें से चार को मृत्युदंड दिया। उनके पुत्र संभाजी और बाद के सेनापतियों ने शिवाजी की पंरपरा को कायम रखा और पश्चिमी तट पर अंग्रेजों और पुर्तगालियों के वर्चस्व को समाप्त करने के अथक प्रयत्न किए।

शिवाजी के किसी अन्य कार्य से अधिक, उनकी मृत्यु के बाद हुई घटनाओं और अविश्वसनीय रूप से संभाजी के बर्बरतापूर्ण बलिदान ने उस दृष्टि और उद्देश्य को उजागर किया था, जो शिवाजी ने अपनी विरासत के तौर पर छोड़ा था। शिवाजी के न रहने पर औरंगजेब स्वयं उनके राज्य पर चढ़ आया और उसे रौंद डाला। पर शीघ्र ही समूचा क्षेत्र मानो दावानल बन गया। प्रत्येक घर एक किला और शारीरिक रूप से योग्य हर युवा हिंदवी स्वराज का सैनिक बन गया था।

अप्रतिम वीरता और छापामार पद्धति के नए सेनापति सामने आए, जिन्होंने शत्रुओं की सेना पर जोरदार हमले किए। उनमें से एक धनाजी तो औरंगजेब के शाही तंबू तक जा पहुंचा था, पर दुर्भाग्य से औरंगजेब वहां नहीं था। धनाजी उसके शाही तंबू का स्वर्ण चिन्ह लेकर लौटा था। अपनी विशाल सेना और सभी पारंगत योद्धाओं के बावजूद औरंगजेब को चार वर्ष तक चले लंबे संघर्ष में आखिरकार स्वराज की धूल खानी पड़ी और उसकी कब्र दक्षिण में औरंगाबाद, जिसका नाम अब संभाजी नगर रख दिया गया है, में ही बनी। उसके साथ ही मुगलों के उत्कर्ष और उनकी ताकत का भी अंत हो गया। और इस तरह स्वराज के चढ़ते सूरज के साथ भगवा प्रभात का आगमन हुआ।”

 

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