टुकड़ा टुकड़ा इश्क:अधूरी दास्तां

लप्रेक-1
वह अचानक से आकर मेरे सामने बैठ गई थी।
मैं थोड़ा हकबका गया,क्योंकि चेहरे की मुस्कुराहट और नजर की चंचलता देख मैं एबनार्मल फील करने लगा।
हवा में अचानक वजन बढ़ गया जो पूरा धकेलने के बाद फेफड़े तक जा रही थी।
उसने ही बोलना शुरू किया -आपसे बात करने की बहुत दिनों से सोंच रही थी,लेकिन मौका ही नही मिल पा रहा था।
क्लास में तो रोज मिलते ही हैं।
उसने नजर उठाई मानो कह रही हो-बुद्धू कहीं के।
थोड़ी देर नीरवता छाई रही जैसे हम फोचके की दुकान पर खड़े आधे आधे अजनबी से हों।
बाहर कड़ी धूप थी।
बहुत गर्मी है आज ।नही?
हां-थकी हुई आवाज के साथ उसने कहा।
कहानी आगे बढ़ नही पा रही थी।
आगे बढ़ी भी नही।भावनाएँ साकार नही हो पाई जैसा कि अक्सर होता है आधे शहरी और आधे गवईं लोगों के साथ।

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