नक्सलवाद का नासूर

सुकमा


नक्सलवाद एक ऐसा नासूर बन चुका है जिसकी सर्जरी तत्काल होनी चाहिए |छतीसगढ़ के सुकमा में जिस ढंग से घात लगा कर २५ सी आर पी ऍफ़ जवानों को नक्सलियों ने मौत के घाट उतार दिया वह नक्सलवाद का बेहद घिनौना चेहरा है |इस घटना के बाद केंद्र सरकार ने दस नक्सल प्रभावित राज्यों के साथ एक बैठक कर उसकी समीक्षा करने और इसके निदान का उपाय ढूँढने की घोषणा की है |बिहार ने भी इस हमले में अपने छह बहादुर सपूत खो दिए |सवाल उठता है कि वो कौन से कारण हैं जो प्रभावित राज्य सरकारों या फिर केंद्र सरकार को नक्सलियों का सफाया करने या इनके खिलाफ सख्त कदम उठाने से बराबर रोक देते हैं |
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१९६६ में जब बंगाल से नक्सली आन्दोलन की शुरुआत हुई थी तो आम लोगों को लगा था कि सामंती जुल्म के खिलाफ उठी एक ज़ोरदार आवाज़ है यह आन्दोलन |ऐसे में लोगों की सहानुभूति मिलना स्वाभाविक था |लेकिन दबे – कुचलों को न्याय दिलाने और उन्हें मुख्य धारा से जोड़ने के नाम पर शुरू हुआ यह आन्दोलन बहुत जल्द पटरी से उतर कर हिंसक हो गया |इसे दबाने या कुचलने के बजाय तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इसे फलने – फूलने का पूरा मौक़ा दिया |उसी का यह कुपरिणाम हुआ कि बंगाल से शुरू हुआ यह आन्दोलन अपने हिंसक और घिनौने रूप में फैलता हुआ आज देश के दस राज्यों में अपनी गहरी जड़ें जमा चुका है |बंगाल,बिहार ,ओडिशा ,आंध्र प्रदेश ,झारखण्ड ,छत्तीस गढ़ ,मध्य प्रदेश ,महाराष्ट्र जैसे राज्य इसकी चपेट में हैं |आये दिन इन नक्सलियों का कहर निर्दोष लोगों पर टूटता रहता है ,और सरकार इन्हें भटके हुए नौजवानों की समस्या बता कर सिर्फ बैठकें करती रहती हैं |कोई भी सरकार या राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जिसने इस समस्या की गंभीरता और क्रूरता का सही आंकलन कर इसे निपटाने के लिए सख्त कदम उठाया हो |नक्सली सबसे ज्यादा नुक्सान आम आदमी को ही पंहुचा रहे हैं |उन्हें अपने इलाके में बन रही सड़कें ,खुल रहे स्कूल -अस्पताल और इसी तरह के विकास कार्यों से सख्त नफरत है |अपने इलाके के प्राकृतिक और खनिज संपदा का भरपूर शोषण और विकास कार्य में लगी विभिन्न एजेंसियों से वसूली ही इनका मुख्य पेशा है |इनकी मदद उस इलाके के ग्रामीण और वाशिंदे भी करते हैं |कुछ अपनी मर्ज़ी से और कुछ डर कर |

प्रश्न यह उठता है कि इनकी मदद कौन करता है ,इनके पास हथियार कहाँ से आते हैं , इन्हें पासे कहाँ से मिलते हैं और कौन हैं वो लोग जो इन जैसे देश और समाज विरोधियों को बचाने में लगे हैं |सरकार के पास ऐसी तमाम एजेंसियां हैं जो इन सब का पता सहज ही लगा सकती हैं |फ्हिर क्या वजह है कि स्थानीय पुलिस से लेकर किसी को कोई जानकारी नहीं होती और अचानक एक सुबह सुकमा जैसी घटना हो जाती है |जब हमारी सरकार आसाम और कश्मीर में सेना की मदद से उग्रवाद पर नियंत्रण का प्रयास करती है , नियंत्रण भी करती है , तो फिर वह कौन सी ताकत है जो उसे नक्सल प्रभावित इलाकों में ऐसा करने से रोकती है |इसका सीधा सा जवाब है ,सरकार के पास इक्षा शक्ति की जबर्दश्त कमी |सरकार को भी यह बात समझ लेना चाहिए कि जब जानवर आदमखोर हो जाए तो उसे गोली मार देते हैं |हमें भी अपने बहादुर जवानो को बचाने के लिए अब उन क्षेत्रों में न सिर्फ सेना को भेजना होगा बल्कि नक्सलियों को उन्ही की भाषा में जवाब देना होगा |हमें इस सच को स्वीकारने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि ये वो नक्सली नहीं हैं जिन्होंने दबे – कुचले ग्रामीणों को जमींदारों के चंगुल से निकल कर उन्हें उनका हक दिलाने का संकल्प लिया था |

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