नेहरू और वामपंथ
नेहरू जी के बारे में अक्सर यह विवाद होता रहता है कि क्या वे गांधीवादी थे या फिर वामपंथी थे। जो भी दस्तावेज मिलते हैं और उनके जो विचार आर्थिक संदर्भ में या राजनीतिक संदर्भ में देखने को मिलता है उससे स्पष्ट होता है कि नेहरू जी गांधीवादी नहीं थे पर निश्चित तौर पर एक डेमोक्रेट थे जिस वजह से वामपंथी होते हुए भी स्टालिन या लेनिन के हिंसक क्रांति के विचारो से सहमत नहीं थे। दस्तावेज ऐसा बताते हैं वे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के सदस्य भी थे और एक बार उसके कार्यकारिणी के मानद अध्यक्ष भी चुने गए थे। उनके रूस यात्रा की व्यवस्था की गई थी।वहाँ से उन्हें कांग्रेस में वामपंथी विचारधारा को प्रोत्साहित करने के लिए निर्देशित किया गया था क्योंकि कांग्रेस के बाहर जब भी वामपंथियों ने मास्को के निर्देश पर तख्ता पलट का प्रयास किया ,असफल हो गए । जो लोग इतिहास के विद्यार्थी हैं वे पेशावर षड्यंत्र के बारे में जानते होंगे। पेशावर षड्यंत्र में वामपंथियों ने उत्तर पश्चिम भाग को भारत से अलग कर एक अलग वामपंथी राज्य की स्थापना का प्रयास किया था जब वेअसफल हो गया तब उन्होंने दूसरे रास्ते से भारतीय राजनीति में या फिर यूं कहिए कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपनी सहभागिता करने का प्रयास किया और फिर अपने विचारधारा को कांग्रेेेस के जरिए बढ़ाने का प्रयास किया ।रोचक बात यह हुआ कि जो वामपंथी कांग्रेस में शामिल हुए वो तो उसके दर्शन से प्रभावित रहे लेकिन पद्धति को उन्होंने नकार दिया यानी कि हिंसक क्रांति के पद्धति को नकार दिया ।उन पर गांधी का प्रभाव ज्यादा रहा इस वजह से वे अहिंसा के पुजारी रहे। यद्यपि गांधी जी को जब यह एहसास हुआ कि नेहरू वामपंथ से ज्यादा प्रभावित है तो बहुत दुखी हुए। बाद के दिनों में नेहरू के आर्थिक नीतियों के आधार पर यह समझा जा सकता है कि नेहरू ने विकास के मॉडल को लगभग पूरी तरह रूस के मॉडल पर ढाल दिया ।उन्होंने गांधी के आर्थिक सिद्धांतों को पूरी तरह नकार दिया ।नेहरू के वामपंथी रुझान का ही प्रतिफल था कि भारत ने अमेरिका से अपने आप को अलग-थलग रखा और चीन पर अंधा विश्वास करता रहा। अमेरिका के मना करने पर भी चीन के प्रति नेहरू का विचार नहीं बदला और परिणाम चीन के धोखे के रूप में प्राप्त हुआ । लाल बहादुर शास्त्री की मौत जिस तरीके से ताशकंद में हुई उससे भी भारत के खिलाफ वामपंथी षड्यंत्र की भनक मिलती है क्योंकि आज भी शास्त्री की मौत कैसे हुई वह एक रहस्य बना हुआ है । सबसे बड़ी बात यह है कि युद्ध में हम लाभ की स्थिति में थे लेकिन जो शास्त्री जी ने समझौता किया उसे देश के लोगों ने स्वीकार नहीं किया यानी की शर्तें हमारे खिलाफ थी। यह शास्त्री जी के स्वाभाविक प्रवृत्ति के विपरीत समझौता था। नेहरु जी का वामपंथी रुझान ही था कि नेहरू जी ने देश की तमाम शिक्षण व शोध संस्थाओं एवं योजना संबंधी संस्थानों में वामपंथियों को भर दिया । इंदिरा जी ने भी नेहरू की परंपरा को आगे बढ़ाया और आज का कांग्रेस भी इसी परंपरा पर चल रही है। आजादी के बाद के दिनों में गाढे वक्त में वामपंथियों ने हमेशा कांग्रेस का साथ दिया चाहे इमरजेंसी का ही वक्त क्यों ना हो उसी तरीके से कांग्रेस ने भी वामपंथियों से केवल नूरा कुश्ती ही लड़ी । मौका पड़ने पर वह हमेशा उनके साथ खड़ी रही है, जेएनयू का मामला सबके सामने है।