संवादहीनता और निर्णय लेने में अदूरदर्शिता के दुष्परिणाम
संवादहीनता और निर्णय लेने में अदूरदर्शिता के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं, बीएचयू की घटना इसका ताजातरीन उदाहरण है। जिस तरह परिसर के अंदर लड़कियों से छेड़खानी पर उठी आवाजों की अनदेखी की गई, वह अपरिपक्व प्रशासनिक क्षमता का नतीजा है। बीएचयू की बच्चियों ने महज अपनी सुरक्षा की मांग ही तो की थी। यही चाहा था कि परिसर में, खासतौर से उन जगहों पर सीसीटीवी कैमरे लगवा दिए जाएं, जहां से गुजरने में उनको असुरक्षा बोध होता है। उन्हें लगा कि कैमरे लगने से शायद परिसर की अराजकता पर अंकुश लग जाए। वे गलत भी नहीं थीं। वे बस सड़क पर बेखटके चलने की आजादी चाह रही थीं कि शाम होते ही उन पर बाहर न निकलने की बंदिशें न थोपी जाएं। कुछ अप्रिय हो, तो शिकायत करने का अवसर उनके पास हो। वे ऐसा प्रभावी ग्रीवांस सेल चाहती थीं, जो उनकी बातें संवेदना के साथ सुने। ये सारी मांगें नई नहीं हैं। नया सिर्फ इतना है कि अपने साथ हुई एक ताजा घटना से उत्तेजित होकर ये सड़क पर आ गईं और इनके भीतर का गुबार फट पड़ा। सच तो यही है कि कई स्तरों पर अगर अनसुनी न हुई होती, तो यह नौबत ही न आती। आक्रोश जताने सिंहद्वार पर आ बैठी इन बच्चियों की यह सहज प्रकृति नहीं थी। वे राजनीतिक नहीं, बस चेतना से लैस आम बच्चियां थीं और आखिर में इन्हें अपनी बात कहने के लिए धरना देना ही ठीक लगा।
दरअसल, यह सब समय से हस्तक्षेप न किए जाने और संवादहीनता से उपजे हालात का कुफल है। विश्वविद्यालय सिर्फ अध्ययन नहीं, वैचारिक आदान-प्रदान के मंच भी होते हैं। इन परिसरों में कई संस्कृतियां मिलती हैं। ऐसे में, बच्चों को खुले, लेकिन सुरक्षित माहौल की भी दरकार होती है। बीएचयू भी विचारों के आदान-प्रदान के मामले में खासा उदार रहा है। यहां का माहौल भी प्राय: ऐसी खबरों से सुर्खियों में नहीं रहा। लेकिन हालिया सच यही है कि माहौल बदला है और असुरक्षा बोध छात्राओं की चिंता में शामिल हो चुका है। गड़बड़ यह भी हुई है कि यहां के प्रशासनिक तंत्र में सख्त, लेकिन छात्र-छात्राओं में स्वीकार्य व्यक्तित्व की कमी होती गई है। एक बात और समझने की है। शिक्षा के मंदिर अहं से नहीं चला करते। गुरुवार को व्यवस्था से नाराज बच्चियां जिस तरह धरने पर बैठीं, उनकी किसी ने नहीं सुनी। रात के गहन अंधेरे में उन्हें जिस तरह से उनके हाल पर छोड़ दिया गया, वह भी प्रशासनिक संवेदनहीनता की श्रेणी में ही आता है। ये छात्राएं संवेदना के साथ सुनवाई चाहती थीं, जो नहीं हुई, लेकिन वह सब हुआ, जो नहीं होना चाहिए था।
समझना होगा कि ये सामान्य घरों से पढ़ने के लिए आई लड़कियां थीं, उपेक्षा ने जिन्हें विद्रोही बना दिया। लेकिन वे किसी का मोहरा नहीं बनीं, शांत रहीं। अशांत भी होतीं, तो वे किस हद तक जातीं? ऐसे में, अशांति का बहाना लेकर उन पर आधी रात में लाठीचार्ज करना, वह भी बिना महिला पुलिस के कहां की संवेदनशीलता थी? अब आप चाहे हजार छात्र-छात्राओं पर केस करें या हजारों पर, एक सीओ, एक थाना इंचार्ज या मजिस्ट्रेट को हटा दें या पूरा अमला ही बदल डालें, परिसर की साख तो खराब हो चुकी है। यह साख प्रशासनिक अक्षमता, अदूरदर्शिता और झूठी हठधर्मिता से बिगड़ी है। छात्राओं का आक्रोश हालात की उपज था, लेकिन प्रशासनिक हठधर्मिता जिद का नतीजा थी। दोनों में भेद करने की जरूरत है। अब जब कार्रवाई का दौर चल पड़ा है, तो कई तरह की पड़तालें होंगी। लेकिन क्या यह भी पड़ताल होगी कि सामान्य से मामले में इतना अदूरदर्शी रवैया क्यों अपनाया गया? यकीन मानिए, इस एक सवाल की ईमानदार जांच के बाद किसी और जांच की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
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