उत्तर प्रदेश में महागठबंधन पर ग्रहण !
विपक्ष २०१९ में मोदी सरकार को हटाने के सपने देख रहा है लेकिन उत्तर प्रदेश में उसके प्रस्तावित गठबंधन पर ग्रहण सा लगता नज़र आ रहा है | ये तो सभी जानते हैं कि दिल्ली के तख़्त पर वही बैठेगा जो उत्तर प्रदेश में अव्वल रहेगा |लोक सभा की सर्वाधिक सीट इसी प्रदेश से है और शायद यही वजह है कि जिसने यहाँ बाज़ी मर ली उसके लिए दिल्ली की राह आसान हो जाती है |वैसे तो विपक्षी पार्टियां जी -जान से इस कोशिश में जुटी हैं कि , राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसा महागठबंधन बन सके जो मौजूदा केंद्र सरकार ( खासकर भाजपा ) को टक्कर दे सके और २०१९ के आम चुनाव में जिसकी सरकार बने |कोशिश करना और सपने देखना दो अलग -अलग चीजें हैं |फ़िलहाल राष्ट्रीय फलक पर और खासकर उत्तर प्रदेश से जो तस्वीर उभर रही है उसे देखते हुए यह कहना कतई गलत नहीं होगा कि उत्तर प्रदेश से इस प्रस्तावित महागठबंधन को ऐसा झटका लगने वाला है कि ,सब कुछ बिखर जायेगा |उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा का वजूद ही इस पर कायम है कि वो दोनों एक दूसरे को चुनौती दें |एक साथ आते ही दोनों के अस्तित्व पर संकट आ जायेगा |दूसरी बात यह कि विधान सभा चुनाव में मात्र सात सीट पर सिमट जाने वाली कांग्रेस के अधिकांश नेता इस बात के पक्ष में नहीं कि अखिलेश और मायावती के साथ मिलकर चुनाव लड़ा जाए |सबसे बड़ी बात यह कि अखिलेश और मायावती दोनों ही मुलायम सिंह यादव और उनकी प्रस्तावित नई पार्टी के सख्त खिलाफ हैं |मुलायम एक ऐसे नेता हैं जिनकी अनदेखी कर उत्तर प्रदेश में किसी भी विपक्षी एकता की कल्पना भी बेमानी है |वैसे भी मुलायम ने शिवपाल के साथ रहने का फैसला किया है ,और अखिलेश फूटी आँख भी शिवपाल को देखना नहीं चाहते |अब तो अखिलेश को मुलायम की नाराज़गी हमेशा ही झेलनी होगी |वैसे भी मुलायम अब किसी भी कीमत पर अखिलेश को महत्वपूर्ण होते देखना पसंद नहीं करेंगे |निचले स्तर और कार्यकर्ता स्तर पर भी उत्तर प्रदेश की इन सभी पार्टियों में गठबंधन को लेकर भारी अंतर्विरोध और कलह है |कांग्रेसी नेताओं और कार्यकर्ताओं की एक बड़ी संख्या है जिसे लगता है कि विधान सभा चुनाव में अखिलेश के साथ जाने की वजह से ही पार्टी की लुटिया डूब गयी |दूसरी ओर सपा के कार्यकर्ता भी ऐसी ही सोच रखते हैं और उन्हें लगता है कि जो भी पार्टी राहुल गाँधी से हाथ मिलाएगी उसका बंटाधार होना तय है | राष्ट्रीय स्तर पर भी विपक्ष के प्रयासों को उत्साहित करने वाली सफलता फ़िलहाल मिलती नज़र नहीं आ रही है |अब ऐसे में सोनिया गांधी का नेतृत्व महागठबंधन में कितनी जान फूंक सकेगा इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है |अगर अटकलों को सही मान लिया जाये तो फ़िलहाल तो कांग्रेस अपने भावी अध्यक्ष राहुल गाँधी को लेकर ही रणनीति बनाने में जुटी है |अटकलें हैं कि ,राहुल की ताजपोशी अक्टूबर माह में होगी |उनके अध्यक्ष बनते ही प्रस्तावित महागठबंधन की शक्ल बदलना तय है |करूणानिधि के जन्मदिन के बहाने विपक्षी एकता दिखलाने की कोशिश में भी कुछ खास दम नज़र नहीं आया |फ़िलहाल ,इतनी बात जरूर कही जा सकती है कि मोदी सरकार को चुनौती देने वाले प्रस्तावित महागठबंधन की शक्ल बेहद धुंधली है और निकट भविष्य में उस तस्वीर के साफ़ होने की कोई गुंजाइश नहीं लगती |