अतिवादी दृष्टिकोण से खत्म नहीं होगा आतंक
जल्दी से बताइए, ब्रसेल्स, इस्तांबुल, पेरिस, नीज़, बर्लिन, ओरलैंडो, लंदन और मैनचेस्टर- इन शहरों में क्या समानता है? दुनिया के प्रमुख व समृद्ध शहर होने के अलावा इन सब पर आईएसआईएस से जुड़े बड़े आतंकी हमले हुए हैं। इन सारे हमलों में सैकड़ों निर्दोष लोगों की जान गई हैं। उन्होंने लाखों लोगों के मनोमस्तिष्क में भय भी पैदा किया है। लंदन और पेरिस जैसे शहरों के सुरक्षित होने की उम्मीद रहती है। यदि आतंकी दुनिया के शीर्ष महानगरों में वारदात कर सकते हैं, तो बाकी दुनिया के लिए क्या उम्मीद रह जाती है? सच तो यह है कि जून 2014 में जब आईएसआईएल ने खुद के इस्लामिक स्टेट होने की घोषणा की थी तब से, सीएनएन के आंकड़ों के मुताबिक, इसने 20 देशों में 70 आतंकी हमलों को अंजाम दिया है अथवा उसके पीछे उसका हाथ रहा है। इन देशों में आईएसआईएस के घरेलू ठिकाने माने जाने वाले सीरिया और इराक नहीं हैं,जहां आतंकी गतिविधियों में और हजारों लोग मारे गए हैं। भारत ने आतंकवाद की पीड़ा भुगती है और पाकिस्तान ने भी। अब पता चला रहा है कि पहली दुनिया भी आतंकवाद से महफूज नहीं है और फिर भी ऐसा लगता है कि इसका कोई समाधान नहीं है। कई देशों में आतंकवाद वाकई राजनीतिक मुद्दा बन गया है। हालांकि, यह समस्या समाधान के लिए लोगों को एकजुट करने की बजाय उन्हें गोलबंद और विभाजित अधिक करता है। आतंकवाद का मुद्दा आज एक्सट्रेमिटीज यानी एकतरफा कट्टरपन का एक और शिकार हो गया है। कट्टरता का यह रोग इंटरनेट पर महामारी का रूप ले चुका है। यदि आप किसी समस्या को सुलझाने के लिए संतुलित, व्यावहारिक या बहुत गहराई वाली सोच जाहिर करते हैं तो सोशल मीडिया पर लोगों द्वारा उसे सुनना-पढ़ना बहुत कठिन हो गया है। चीजें या तो ‘अद्भुत’ होती हैं अथवा ‘विनाशक।’ मोदी को या तो पूजा जाएगा या उनसे नफरत की जाएगी। डोनाल्ड ट्रम्प या तो शत-प्रतिशत सही हैं अथवा पूरी तरह मूर्ख। आप या तो ‘देशभक्त’ हैं या ‘देशद्रोही।’ हर परिस्थिति के अच्छे-बुरे पहलू होने की दलील बहुत कमजोर मानी जाती है। सत्य व तथ्य अप्रासंगिक हैं। विवेक, तर्क का कोई महत्व नहीं है। महत्व तो सिर्फ आपकी भावनाओं और इस बात का है कि आप किसकी ओर हैं। ‘एक्ट्रेमिटीज’ व्यापक सामाजिक संवाद का खौफनाक बाय-प्रोडक्ट है। जिस सोशल मीडिया से अपेक्षा थी कि वह दिमाग के दरवाजे खोल देगा और कई तरह के दृष्टिकोण उजागर करेगा, वह दुनिया में ध्रुवीकरण लाने वाला सबसे बड़ा कारक हो गया है।
आतंक का मुद्दा इसका कोई अपवाद नहीं है। ‘एक्ट्रेमिटीज’ के मुताबिक आतंकवाद दो में से एक चीज हो सकता है। एक, यह ‘पूरी तरह इस्लाम का दोष है’ और इसलिए ‘मुस्लिमों पर प्रतिबंध’ लगाना चाहिए। आतंकवाद के एस्ट्रेमिटीज के दूसरे छोर पर एक्स्ट्रा लिबरल यानी अति-उदारपंथी हैं। इनका मानना है कि ‘ये अातंकी हमले किसी धर्म विशेष से जुड़े नहीं हैं’ और जो ऐसा दावा कर रहे हैं वे ‘इस्लामोफोब’ और ‘नस्लवादी’ हैं। ये एक्ट्रेमिटीज बहुत शोर-गुल मचाते हैं और आकर्षक सुर्खियां देते हंै। ये वास्तव में कोई समाधान नहीं देते, किसी समस्या को नहीं सुलझाते। इस बीच आईएसआईएस के बढ़ते कदम नए शहरों में नई विनाशलीला रचते हैं। हमें आतंकवाद पर गोलबंद होना बंद करना होगा। यह कोई दक्षिणपंथी या वामपंथी मुद्दा नहीं है। यह तो हम सभी को प्रभावित करता है। और जहां आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि मौजूदा वक्त का सबसे सक्रिय आतंकी संगठन आईएसआईएस कट्टरपंथी इस्लाम का ही अनुयायी है। राजनीतिक रूप से सही होेने के नाम पर इस सत्य को छिपाने से कोई लाभ नहीं मिलने वाला।
आतंकियों की भर्ती में इस्लाम के दुरुपयोग का मतलब है इस समस्या के समाधान में व्यापक रूप से मुस्लिम समुदाय और खासतौर पर इस्लामी देशों को सक्रिय भूमिका निभानी होगी। कट्टर इस्लामी संगठन पैसा (अवैध गतिविधियों से) इकट्ठा करने में कामयाब हो जाते हैं। इनका मुकाबला करने के लिए मजबूत मध्यमार्गी इस्लामी संगठन निर्मित करने की जरूरत है, जिन्हें दुनियाभर की सरकारें पैसा मुहैया कराएं। इन आधुनिक, मध्यमार्गी, उदारवादी मुस्लिम संगठनों के पास चाहे बंदूकें न हों लेकिन, वे इतने महत्वपूर्ण और प्रभावशाली हों कि कट्टरपंथियों के सामने टिक सकें।
फिर इस्लाम ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जो एक दर्जन से ज्यादा देशों का आधिकारिक धर्म है। इनमें से कई लोकतांत्रिक भी नहीं हैं और इन देशों की व्यवस्था चलाने में कट्टरपंथियों का दबदबा है। इससे समस्या जटिल हो जाती है और शायद यही वजह है कि अन्य धर्मों की बजाय अतिवादी इस्लामी आतंक ज्यादा फलाफूला है। लेकिन, शेष विश्व को एकजुट होकर इन देशों पर राजनयिक, आर्थिक व अन्य तरह का दबाव डालना चाहिए ताकि वहां आतंकवाद को जरा भी बर्दाश्त न करने की नीति कायम की जा सके। संभव है कि एक हद तक कट्टरपंथी मान्यताएं गलत न भी हों और वे धार्मिक चुनाव के मानदंडों के भीतर हों। हालांकि, जब निर्दोष लोगों को चोट पहुंचती है तो सारी दलीलें खत्म हो जाती हैं। जैसे इनमें से कई देशों ने मादक पदार्थों के खिलाफ ‘जीरो टॉलरेंस’ कानूनों को लागू किया है और अपने देश को इन पदार्थों से मुक्त रखने में कामयाब रहे हैं। इसी तरह उन्हें आतंकवाद के खिलाफ भी ‘जीरो टॉलरेंस’ अपनाना होगा। भारत में भी हमें यही करना होगा। आतंकवाद की समस्या सुलझना कठिन है। इसमें केवल ‘जीरो टॉलरेंस’का रवैया ही काम देगा। इस हद तक हमारे यहां आतंकवाद पर नरम रवैया (‘वे तो सिर्फ भटके हुए युवा हैं’ प्रकार के) रखने वालों की भर्त्सना होनी चाहिए।
ऊपर सुझाए गए समाधानों में ‘मुस्लिम बैन’ या किसी मज़हब को बुरा बताने की बात नहीं है। पर इसके साथ राजनीतिक रूप से सही होने के नाम पर ढुलमुल रवैया नहीं अपनाना चाहिए। आतंकवाद का समाधान कोई एक अतिवादी दृष्टिकोण अपनाने से नहीं आएगा बल्कि विवेक व तर्क का इस्तेमाल करने पर यह कहीं मध्य में मिलेगा। वक्त आ गया है कि हमें एक्सट्रेमिटीज से दूर हटकर एक विशाल समस्या के समाधान पर काम कर दुनिया को अधिक सुरक्षित बनाना चाहिए।
curtsey:Chetan Bhagat
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)