पेरिस समझौते से हटकर अपना प्रभाव खो देगा अमेरिका

पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका का हटना विश्व के लिए चिंता का विषय है, क्योंकि अमेरिका विश्व में दूसरे नंबर का कार्बन उत्सर्जक देश है। 196 देशों ने सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर किए थे, परंतु जून 2017 तक सिर्फ 148 देशों ने इसकी पुष्टी की है। हालांकि ट्रम्प ने यह भी कहा है कि वे इस समझौते में शामिल होने के लिए मोल-भाव करेंगे। अमेरिकी काउंसिल फॉर कैपिटल फार्मेशन की हालिया रिपोर्ट ट्रम्प की बेचैनी जाहिर करती है, जिसमें अनुमान लगाया गया है कि वैश्विक परिस्थितियों और पेरिस डील से अमेरिकी अथव्यवस्था को तीन खरब डॉलर का नुकसान होगा और 2040 तक 65 लाख नौकरियों की छंटनी करनी होगी, जिससे अमेरिका में रोजगार का भयावह संकट पैदा हो जाएगा लेकिन, यह अनुमान अतिशयोक्तिपूर्ण भी हो सकता है।
इस समझौते से बाहर होकर अमेरिका खुद को आज़ाद पंछी महसूस कर रहा है जो दूसरे देशों के प्रति जवाबदेह नहीं है, पर उसका ऐसा समझना मूर्खता होगी, क्योंकि जैसे ही यह खबर आई कि अमेरिका पेरिस समझौते से बाहर हो गया है तमाम राष्ट्राध्यक्षों ने इसका विरोध किया। समझौते से हटने के बाद अमेरिका अन्य देशों पर दवाब डालने की क्षमता खो देगा, जो भारत-चीन जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए और अधिक फायदेमंद होगा। संभव है कि अमेरिकी रवैया कुछ देशों को पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली योजनाएं कम करने के लिए प्रोत्साहित करे। अब यूरोपियन संघ, चीन, भारत और अन्य प्रमुख देशों से उम्मीद है कि वे अपना लक्ष्य कायम रखेंगे और कुछ ज्यादा आक्रामक रवैया अपनाएंगे।
अमेरिका सुरक्षा, व्यापार और कई अन्य मुद्‌दों पर वैश्वीकरण का पैरोकार बनता है। वैश्वीकरण की आंधी का उसने खूब फायदा भी उठाया है। अब उसे पर्यावरण के मामले में भी कोई मध्य-मार्ग निकालने की कोशिश करनी चाहिए ताकि उसे कम से कम नुकसान हो और पर्यावरण संरक्षण का लक्ष्य भी प्रभावित न हो। यह तो तय है कि कुर्बानी सभी देशों को देनी होगी, विकसित देशों को ज्यादा देनी होगी, क्योंकि उन्होंने ही सबसे ज्यादा फायदा उठाकर पर्यावरण को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया है।
courtsey:-यश मित्तल, 19 वर्ष, इंस्टीट्यूट ऑफ लॉ, निरमा यूनिवर्सिटी, अहमदाबाद

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